नीलिमा चौहान और अशोक कुमार पाण्डेय के संपादन में आई बेदाद ए इश्क रूदाद ए शादी में प्रेम-पीर और विवाह-कथा के आख्यानों से गुजरते हुए कुछ बातें याद आर्इं, कुछ घटनाएं। सूरदास की गोपियों का सवाल: ‘लरिकाई कौ प्रेम, कहौ अलि कैसे भूले?’ अंबर्तो ईको के ‘दि नेम आॅफ दि रोज’ में फादर जॉर्ज का कथन: ‘वासनापरक ही नहीं, परमात्मा का प्रेम भी मर्यादा के लिए खतरनाक, इसलिए त्याज्य है।’ मर्यादा का मतलब, चर्च की अबाध सत्ता। फासीवाद के जन-मनोविज्ञान का अद्वितीय अध्ययन करने वाले, विल्हेल्म रीख की बात: ‘औरतों की यौन-जागरूकता की स्वीकृति और उसका समर्थन निरंकुश विचारधारा के पूर्ण विनाश का कारण बन सकता है।’
घटना। 1995 में ‘संस्कृति: वर्चस्व और प्रतिरोध’ के पहले संस्करण का लोकार्पण। पुस्तक में प्रेम की मुक्तिकारी राजनीतिक संभावनाएं टटोलने की कोशिश है। जम कर खिल्ली उड़ाई नामवरजी ने। भूरि-भूरि निंदा की पुस्तक में बखानी गई प्रेम-महिमा की; रेखांकित किया, परिवर्तन के लिए घृणा का महत्त्व। यह भुलाते हुए कि पुस्तक मर्यादा उर्फ निरंकुश सत्ता से घृणा करते हुए ही यौनिक समेत प्रेम के सभी रूपों की मुक्तिकारी संभावनाओं पर बल देती है। तब से अब तक मन में सवाल गूंजता रहा है- प्रेम से इतनी घृणा क्यों, घृणा से इतना प्रेम क्यों?
सात साल बाद, इपीडब्ल्यू में छपा दिवंगत के. बालगोपाल का मार्मिक लेख- ‘गुजरात प्रदेश आॅफ हिंदू राष्ट्र’। लेख का आरंभ, इस चिंता से हुआ था कि ‘अगर प्रेम सिखाना इतना कठिन है, और घृणा का प्रचार इतना आसान, तो कितनी बचती है, समाज की पुनर्रचना की संभावना?’ बालगोपाल की चिंता थी- ‘नाजीवाद के संदर्भ में हो या हिंदुत्ववाद के- इस तरह के सवालों से टकराने में वामपंथी सोच की दिलचस्पी क्यों नहीं? नफरत की राजनीति के बरक्स ‘प्रेम की राजनीति’ की संभावनाएं टटोलने में परिवर्तनकामी बौद्धिक विफल क्यों?’ वे याद दिलाते हैं, नाजीवाद के संदर्भ में, अच्छी शुरुआत करने के बाद, ‘एरिक फ्रॉम भी बहुत दूर तक नहीं गए।’
यह तब जबकि प्रेम संसार भर के साहित्य (और आख्यान के दूसरे रूपों) के सदाबहार विषयों में अव्वल है।
समीक्षाधीन पुस्तक प्रेम का शास्त्रीय विमर्श होने का दावा नहीं करती। संपादक अशोक पांडेय का सवाल है- ‘अगर सच में कोई फर्क नहीं बचता दोनों में; पांच या दस साल बाद, तो इन विद्रोहों का कोई मानी है?’ यही सवाल इस संकलन का कारक-ग्रह है, और जो उत्तर प्राप्त हुए हैं, वे प्रेम के और राजनीतिक आशयों को मार्मिक ढंग से रेखांकित करते हैं।
वास्तविक संघर्षों, सफलताओं-विफलताओं के आख्यानों का यह संकलन हमारे समय में प्रेम की आत्मकथा का पाठ रचता है। संपादक नीलिमा चौहान की उम्मीद वाजिब है, ‘यह किताब अपने विनम्र रूप में समाजशास्त्रीय अध्ययन के लिए अध्ययन सामग्री की तरह देखी जा सकती है।’ सचमुच, किताब समाज-चित्त में बैठे ऐसे पूर्वग्रहों को सामने लाती है, जो औपचारिक समाज-विमर्श का विषय नहीं बनते। खुद की प्रेम-कहानी के पहले सुमन केशरी एक और अनुभव-कथा याद करती हैं, जिसमें, ‘जातिवादी सोच और अर्थसत्ता से जुड़े लाभों का एक नया ही घालमेल था।
जाति-व्यवस्था के हाशिये पर के परिवार की लड़की को तथाकथित उच्च जाति का ससुराल उत्साह से अपना रहा था, लेकिन मायके की चिंता, ‘सोने के अंडे देने वाली मुर्गी’ के हाथ से निकल जाने की थी।’ सुमन का एक और सवाल है, ‘मामला 1983 का न होकर 2013 का, (हॉरर किलिंग के जमाने का) होता तो?’
शकील के हिंदू ससुराल से विवाह की मंजूरी के लिए दो शर्तें- चार विवाह नहीं करेंगे, पाकिस्तान नहीं जाएंगे। ममता को मुसलिम ससुराल में लगा कि ‘वो मानते हैं, हिंदू चोर और गंदे होते हैं।’ प्रसंगवश, इस मानने के आधार फारसी के पुराने शब्दकोशों में दर्ज हैं। बेटी का जन्म होने पर, ममता की जेठानी का संदेश- ‘बच्ची को मां का दूध न पिलाया जाए, वरना उसमें हिंदू होने के लक्षण आ जाएंगे।’ रूपा सिंह के ससुराल में सिंदूर धुलवा दिया गया। मोहित खान के ममिया ससुर संघ के बड़े नेताओं में से, लेकिन भांजी के प्रेम के आगे झुके।
रूपा और विभावरी के आख्यान उनके व्यक्तित्व के विकास में जेएनयू की भूमिका भी रेखांकित करते हैं। ये दोनों, सुमन और मेरे जैसे हजारों लोग जेएनयू पर गर्व खामखाह नहीं करते। तोगड़िया जैसे लोग जेएनयू से नफरत भी खामखाह नहीं करते।
मानसिक उलझनों की अंतर्दृष्टि भी यहां मौजूद है। प्रेम दीवानगी जुनून है, क्योंकि वह परिवार और दूसरी सामाजिक संस्थाओं, मर्यादाओं को चुनौती देते व्यक्तित्व की मौजूदगी की सूचना है। मन के ऐसे कोने का रेखांकन है, जिसे आप अपने प्रेमी/ प्रेमिका के सिवा किसी के सामने उजागर नहीं करना चाहते। यही कोना विवाह के बाद प्रेम के आड़े आने लगता है, और न जाने कब कल के प्रेमी आज, ‘एक-दूसरे के पंचिंग बैग’ (विजेंद्र चौहान के शब्द) भी बन जाते हैं। सुजाता के शब्दों में- ‘सारी कोशिशें विवाह को बचाने के लिए होती हैं, प्रेम को नहीं।’ मार्के की बात है कि ऐसी स्थितियों को भी यहां संवेदनशील ढंग से, दोस्ताना जिम्मेदारी के साथ लिखा गया है।
सुमन के शब्द हैं- ‘हमारा मूल संबंध मैत्री का है, हम घर बाहर दोनों जगह साथ रहते और निभाते हैं।’ प्रज्ञा का कहना है- ‘अपने प्रेम को बचाए रखने के सचेत और सतत प्रयास हमने किए हैं। हम पति-पत्नी होते हुए भी दोस्त पहले हैं।’ ये दोनों बयान, जो बात साफ कर रहे हैं, उसकी अंतर्निहित सरस्वती प्रवाहित सभी आख्यानों में है।
सारे आख्यान सफलता के ही नहीं। प्रीति मोंगा और देवयानी भारद्वाज के आख्यान शब्द के सही अर्थ में ‘प्रेरक प्रसंग’ हैं। मोहभंग (प्रीति के मामले में तो हिंसा भी) की यातना झेल कर भी न प्रेम-संभावना में विश्वास खोना, न अपने आप में- बहुत बड़ी बात है। प्रीति की कहानी विफल प्रेम-विवाह और दो बच्चों के बावजूद नए सिरे से मैत्री की मांग की जिजीविषा की कहानी है।
देवयानी मैत्री की मांग पूरी होने के रोमांच और फिर इस मैत्री के ठेठ मर्दवादी पतित्व में बदल जाने से उपजे अकेलेपन की कहानी कहती हैं, बिना कड़वाहट के, बिना आत्मदया के।
बेहतर इंसान बनने में मददगार, यह किताब तैयार करने के लिए हमें अशोक कुमार पाण्डेय और नीलिमा चौहान का आभारी होना चाहिए।
पुरुषोत्तम अग्रवाल
बेदाद ए इश्क रूदाद ए शादी: सं. नीलिमा चौहान, अशोक कुमार पाण्डेय; दखल प्रकाशन, 107, कोणार्क सोसाइटी, प्लॉट नं. 22. आइपी एक्सटेंशन, पटपड़गंज, दिल्ली; 175 रुपए।
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