सप्ताह का आरंभ तो चीन के विस्तारवाद के अंत की कहानी से होता दिखा था और अपने कई एंकर अपनी भुजाएं उठा-उठा कर कहते भी नजर आए कि ये देखो चीन डर गया। उसे अपनी औकात मालूम हो गई। और ये देखो! डर के मारे उसने अपने तंबू उखाड़ लिए। उसके सैनिक पीछे गए। ये गए। ये जा रहे हैं और ये जा चुके…
तसल्ली हुई कि चीन को उन्हीं एंकरों ने ठोका, जो एक दिन पहले तक उसके बढ़ते तंबुओं को गिनाते रहते थे।
एक अच्छी खबर पंद्रह अगस्त को एक भारतीय वैक्सीन के आने की रही, लेकिन विघ्नसंतोषियों ने हजार किंतु परंतु लगाने शुरू कर दिए। गनीमत कि सरकार न मानी!
लेकिन इस डब्लूएचओ को कोई क्या कहे, जो एक दिन कुछ कहता है, दूसरे दिन कुछ! कल तक कहता रहा कि कोरोना छींक, थूक के जमीन पर गिरने से फैलता है, इसलिए घर में बंद रहो, मास्क पहनो, दूरी रखो, हाथ धोते रहो। और अब एक शाम बताने लगा कि यह हवा से भी फैलता है।
घर की हवा में अधिक फैलता है। इसलिए घर से बाहर निकलो, पार्कों में आओ! वे सुरक्षित हैं…यार! जो बात कहो पक्की कहो। उस पर टिको। यह क्या कि हर दिन अपनी सलाह पलट देते हो। इस तरह से तो लड़ लिए कोरोना से!
लेकिन, वृहस्पतिवार की सुबह उज्जैन के महाकाल के मंदिर में महाकाल के दर्शन करके बाहर आ रहे ‘गैंगेस्टर’ विकास दुबे ने अपने को वहीं पकड़वा कर और फिर ‘मैं विकास दुबे हूं कानपुरवाला’ का नारे लगा कर अपने अपराध की कहानी को मीडिया की खबरों के टॉप पर ला दिया।
और अगली सुबह कानुपर के पास हुए उसके ‘पुलिस एनकाउंटर’ में मारे जाने की कहानी ने उसकी ‘क्राइम कथा’ को सारे चैनलों के लिए ‘टॉप ते टॉप’ कहानी बना दिया। इस चक्कर में बाकी सारी कहानियां किनारे हो गईं और ‘एनकाउंटर’ की कहानी ही एकमात्र कहानी रह गई।
चैनलों की स्क्रीनों पर लाइनों पर लाइनें लगाई जाने लगीं : विकास दुबे का एनकाउंटर! गैंगस्टर का एनकाउंटर! कुख्यात गैंगस्टर का अंत!
एनकाउंटर की खबर आते ही एंकर पूछने लगे कि जिस गाड़ी में ले जाया गया, वह रास्ते में बदल कैसे गई? कि, कानपुर से ऐन पहले ही पलट कैसे गई? कि, उसे हथकड़ी क्यों नहीं लगाई? कि, उसने सिपाही से पिस्तौल छीन ली? कि, एनकाउंटर की गोली तो पीठ में लगनी थी, वह सीने पर कैसे लगी?
देखिए! इस तरह के सवाल बेकार हैं। हमें पुलिस के साहसिक कारनामे के लिए उसे बधाई देनी चाहिए! जिन पुलिसवालों को कुख्यात विकास गैंग ने निर्ममता से मारा, उनके परिजन आज खुश हैं… और, इस मीडिया को देखो कि जो न पूछने योग्य है, उसे पूछता है, जो बताने योग्य है, उसे कभी नहीं पूछता!
एनकाउंटर की न्यूज ब्रेक करने वाले एक चैनल ने तुरंत ‘क्यू’ लिया और वह ‘एनकाउंटर’ की कहानी छोड़, विकास दुबे के कुख्यात अपराधी गिरोह द्वारा नृशंसता पूर्वक मार दिए गए आठ पुलिस वालों की शहादत की कहानी कहने लगा कि किस तरह उसने घरों में बम छिपा रखे थे, कहां-कहां से गोलियां चलवा रहा था और किस तरह से पांच हजार का इनामी पांच लाख का इनामी हो गया!
एक ने कहा, उसके दिल में सब नेताओं के राज दफ्न थे। वह गया तो राज भी तो गए! एक चैनल के रिपोर्टर ने तो यह तक कह दिया कि यह एनकाउंटर तो पहले ही तय था, सिर्फ यह पता नहीं था कि एनकाउंटर कहां होगा और कब होगा। अब हो गया! उसने यह भी कहा कि एक एनकाउंटर यहां हुआ, दूसरा लखनऊ में होने वाला है। और ऐसा ही हुआ!
फिर एक रिपोर्टर पूछता रहा कि वह उज्जैन के महाकाल तक बिना किसी रोकटोक के कैसे पहुंच गया?
सब बकवास! देखते नहीं कि मंदिर से ज्यों ही निकला और जैसे ही चिल्लाया कि ‘मैं विकास दुबे हूं कानपुर वाला’ तो हमारे पुलिसवाले ने उसकी गर्दन पर एक धौल मार कर उसे वहीं चुप करा दिया!
एनकाउंटर सीन से रिपोर्ट करता हुआ एक रिपोर्टर हांफता हुआ बताने लगा कि हमें पुलिस ने सीन के पास जाने से मना कर दिया है, इसलिए हम दूर से ही दिखा सकते हैं। और जब पलटी गाड़ी क्रेन से उठवा ली गई, तभी रिपोर्टर सीन तक जा पाया!
इसे कहते हैं कहानी को ठोक-पीट कर ठीक करने की कला! शुक्रवार की सुबह से दोपहर बारह बजे तक के आसपास एक चैनल पर अचानक एक बड़े पुलिस अधिकारी आए और मीडिया के आगे बोलने लगे। लेकिन हमारा दुर्भाग्य, उनका एक ही वाक्य उस चैनल ने सुनवाया कि इस साहसिक कारनामे के लिए कानपुर की पुलिस टीम को बधाई देनी चाहिए… उसके बाद यही चैनल विकास दुबे के गांव के घर में मिले बमों को गिनाने लगा।
इस बीच एक प्रवक्ता ने कड़क आवाज में कहा कि वह कुख्यात गैंगस्टर था, उसने पुलिस वाले मारे थे, उसको पुलिस ने ‘किल’ कर दिया। (यानी क्या गलत किया?)
फिर भी एक एंकर ने पूछा कि मीडिया वाले अक्सर पुलिस की गाड़ियों के पीछे जाते हैं, लेकिन विकास को ले जा रही गाड़ी के पीछे आने से मीडिया वालों को क्यों रोक दिया गया?
मैडम! अगर मीडिया पीछे लगा रहता, तो इतना ‘परफेक्ट एनकाउंटर’ कैसे होता?
इसे कहते हैं न्याय : शठे शाठ्यम् समाचरेत! गैंगस्टर पुलिस सब समाचरेत!
