चर्चा सिर्फ उदार समाज में हो सकती है। उदारता रोशन-खयाली का पहला सबूत है। यहीं से वह प्रक्रिया शुरू होती है, जिससे समाज का चौतरफा विकास होता है। आर्थिक उन्नति इतिहास की एक घटना है, जिसका घटना किसी भी समाज या देश के हाथ में नहीं होता।
चर्चा चाहे चाय पर हो या खाट पर, राज पर हो या काज पर, चर्चा होना जरूरी है। चर्चा ही लोकतंत्र की चूल है, उसका स्वाद है। चर्चा की चुस्की से ही मन खुलते और दिमाग हरे होते हैं। इसी से अभिव्यक्ति की पहली भूख मिटती है। चर्चा को माहौल चाहिए। चर्चा वनस्पति की तरह है। गरमी की चिलचिलाती धूप में दूब को कितना भी पानी डाला जाए, वह हरी नहीं होगी। बरसात आते ही, बिना कुछ किए, हर तरफ हरियाली छा जाती है। पानी का असर तो होता ही है, पर उससे ज्यादा कारगर होता है बरसात का माहौल। दूब को स्वस्थ और हरी होने के लिए ठंडी पुरवैया का होना जरूरी है। चर्चा के लिए भी ऐसा ही कुछ जरूरी है। माहौल जरूरी है।
चर्चा समाज का स्वभाव है। चर्चा व्यक्ति को व्यक्ति से जोड़ती है, अपनी कौम, उसके अभिभावकों से जोड़ती है और फिर समाज और काल से संबंधित करती है। राज-काज इन्हीं चर्चाओं में हिस्सा लेकर, उनको सुन कर ही चलता है। चर्चा कुएं में मुंह डाल कर बोलना नहीं है, बल्कि आसमान की ओर सिर उठा कर उन्मुक्त मन प्रवाह है। चर्चा आसमान की तरह फैलनी चाहिए- एक क्षितिज से दूसरे तक। चर्चा को कनात लगा कर घेरा नहीं जा सकता। जहां ऐसा किया जाएगा वहां चर्चा नहीं वक्तव्य ही कहा-सुना जाएगा। हर चर्चा में कम से कम दो पक्ष होते हैं। इन्हीं पक्षों की वजह से बात उठती और आगे बढ़ती है। बात करना जरूरी है, बात के हर दृष्टिकोण का प्रस्तुत होना जरूरी है। अगर जरूरी नहीं है तो निष्कर्ष निकलना। कभी-कभी सर्वमान्य निष्कर्ष निकल भी आता है, पर यह चर्चा का अंतिम लक्ष्य नहीं है। उसका काम सिर्फ इतना है कि वह ऐसा विमर्श उत्पन्न करे, जिससे आत्ममंथन की शुरुआत हो और धीरे-धीरे हर व्यक्ति अपने-अपने कारणों से अपने ही निष्कर्ष पर पहुंचे। यही निष्कर्ष एकत्रित होकर समाज को विभिन्न पक्षों के बीच में से एक पक्ष का चुनाव कराते हैं। फैसला समाज का होता है, पर चर्चा सबको उसमें हिस्सेदार बना कर उससे बांध देती है।
चर्चा सिर्फ बोलने की आजादी का कानूनी मौलिक अधिकार नहीं है, बल्कि समाज की प्राणवायु है। अधिकार खत्म हो सकता है, कोई शासक उसका हनन कर सकता है, पर प्राणवायु चिरंजीव है। वह किसी न किसी रूप में हमेशा व्याप्त रहेगी। चर्चा नहीं होगी तो फुसफुसाट होगी, बात इशारों से होगी या फिर किसी और तरीके से; पर बात होगी जरूर। फर्क सिर्फ इतना होगा कि वह चौपाल या कॉफी हाउस से उठ कर घरों में जा बैठेगी। ऐसा होना कभी भी अच्छा नहीं होता। सार्वजनिक संभाषण सार्वजनिक स्थलों पर ही होना चाहिए। उसका घरों में सिमट जाना अप्राकृतिक है। प्राणवायु का चारदीवारी में बंधना उसको दूषित कर देता है।
स्वस्थ और बेबाक चर्चा के लिए तीन चीजों का होना जरूरी है। पहली जरूरत है माहौल की। दूसरी जरूरत है प्रसंग की और तीसरी जरूरत है रोशन खयालात की। बंद दिमागों के बीच चर्चा नहीं हो सकती। चर्चा के लिए उदारता चाहिए। धीरज चाहिए। कहने से पहले सुनने की क्षमता चाहिए और आपसी समझ चाहिए। चर्चा का उद्देश्य वाद नहीं है, सहृदयता है। अपना पक्ष जीतना नहीं, रूटों को मानना है। व्यक्ति विशेष होने से उठ कर सर्वजन होना है। तर्क से तसल्ली तक पहुंचना है। वास्तव में हर चर्चा तसल्ली के लिए ही होती है और वही चर्चा कारगर है, जिसमें हर तर्क तसल्ली की तरफ ले जाए।
चर्चा सिर्फ उदार समाज में हो सकती है। उदारता रोशन-खयाली का पहला सबूत है। यहीं से वह प्रक्रिया शुरू होती है, जिससे समाज का चौतरफा विकास होता है। आर्थिक उन्नति इतिहास की एक घटना है, जिसका घटना किसी भी समाज या देश के हाथ में नहीं होता। उदाहरण के लिए हम उन देशों को ले सकते हैं, जहां अचानक कोई प्राकृतिक संसाधन मिल गए (जैसे पेट्रोल) और साथ ही साथ कहीं और कारों का भी अविष्कार हो गया। ऐसे समाज रातों-रात संपन्न हो गए। पर इससे उनके समाज का सर्वांगीण विकास नहीं हुआ, क्योंकि सोच और विचार किसी खंूटे से बंधे रहे। कहने का तात्पर्य यह है कि उदार भाव और रोशन-खयाली आर्थिक विकास के मोहताज नहीं हैं। इनको अर्थ के घर गिरवी नहीं रखा जा सकता। यह नहीं कहा जा सकता कि आर्थिक विकास होने पर छुड़ा लेंगे।
वस्तुत: स्थिति इसके ठीक उलट है। उदार भाव ही समाज को नए-नए रास्ते दिखता है, अपरचित लोगों से मिलाता है, ताजा मानक बनवाता है। यूरोप में ऐसा ही हुआ, जब डार्क एज से निकल कर समाज ने उदार भाव अपनाया, तो साइंस-टेक्नोलॉजी की नींव पड़ी और औद्योगिक क्रांति ने सारे महाद्वीप को चमका दिया। यानी उदार भाव से ही विकास पनपा। यूरोप ही एक मिसाल नहीं है, हालांकि वह सबसे ताजा मिसाल है। भारत, यूनान, चीन में यह सदियों पहले हो चुका था, पर किन्हीं वजहों से उलट गया। उदारता के जाते ही संपन्नता भी चली गई।
उदारता और रोशन-खयाली कुछ घटकों तक सीमित रह जाते हैं, अगर उनको फलने, फूलने और फैलने का माहौल नहीं मिलता। बोलने की आजादी का मौलिक अधिकार सिर्फ एक कानूनी जरूरत नहीं है, जिससे शासन की तपती धूप में कभी-कभार आसपास की दूब को सींचने के लिए किया जाए। अभिव्यक्ति की आजादी तो सावन की वह तर बयार है, जो घर से लेकर जंगल तक हर कोने को हरा-भरा कर देती है, उसको महका देती है। चर्चा की वृष्टि ही जन-जीवन के नवीनीकरण का अमृत है।
स्वस्थ समाज, प्रगतिशील समाज चर्चा विहीन नहीं हो सकता। चर्चा को आगे कैसे ले जाएं, उसको और कैसे सशक्त करें, और उसको उभरते संदर्भों से कैसे जोड़ें, यह समाज और विशेष व्यक्तियों का पहला कर्तव्य है। दोनों को ही समझना चाहिए कि निर्णय से पहले चर्चा होगी और खूब जोर-शोर से होगी। चर्चा से ही भागीदारी की तसल्ली आती है और उसी से समाज अपने से आश्वस्त होता है। इसका कोई छोटा रास्ता नहीं है। यह एक लंबी पगडंडी है, जो कभी-कभी गुम-सी हो जाती है, पर उस पर चल कर ही जन, उनके जीवन और उसके मानस तक पंहुचा जा सकता है। दरअसल, लोकतंत्र चर्चा में ही निहित है और वही समाज लोकतांत्रिक कहलाने का हकदार है, जो खुली चर्चा से भयभीत नहीं होता, बल्कि उसका स्वागत करता है।

