आकांक्षा दीक्षित
आठवीं शताब्दी में भारतवर्ष को भगवान शंकर के अंशावतार के रूप में आदिगुरु शंकराचार्य प्राप्त हुए। अल्पायु में शंकर संन्यस्त तो हो चुके थे परंतु उनका प्रबोधन अभी शेष था। ईश्वर की प्रेरणा से शंकर वरुणा, असी और गंगा मैया की कृपा से अभिसिंचित ज्ञान की राजधानी काशी पधारे। बारह वर्षीय शंकर के जीवन की दो अद्भुत घटनाएं काशी में ही घटित हुर्इं जिन्होंने संभवत: शंकर को शंकराचार्य में रूपांतरित कर दिया।
एक दिन प्रात: काल शंकर अपने अनुयायियों के साथ काशी के किसी मार्ग से गुजर रहे थे। उन्हें बीच मार्ग में एक स्त्री मिली जो अपने मृत पति का सर गोद में रखकर विलाप कर रही थी। विचित्र सी स्थिति थी, कुछ देर रुककर शंकर ने ही कहा, ‘मां! हमें मार्ग दो, जिससे हम जा सके।’ उस स्त्री द्वारा कोई ध्यान न दिए जाने पर शंकर ने पुन: आग्रह किया। इस पर उस स्त्री ने कहा, ‘शव से कहो कि वह स्वयं हट जाए।’ विस्मित से शंकर के मुहं से निकला, ‘प्राणहीन शव स्वयं कैसे हट सकता है।’
इस पर वह स्त्री विलाप छोड़कर अट्टहास कर बोली, ‘क्यों शंकर! तुम्हारा मत तो यह है कि शक्ति से निरपेक्ष ब्रह्म ही सृष्टि का नियामक है, तो शक्ति से हीन यह शव क्यों नहीं उठ सकता?’ शंकर के विचारमग्न होते ही वह स्त्री और शव अदृश्य हो गए। शंकर समझ गए कि माता जगदम्बा उनके आत्म प्रबोधन हेतु प्रकट हुई थीं।
वे भलीभांति समझ गए कि शिव की शक्ति ही जगत के सृजन, पालन और प्रलय का कारण है। शक्ति शब्द ‘शक्’ धातु से स्त्रीलिंग ‘क्तिन्’ प्रत्यय के संयोग से निष्पन्न होता है, जिसका तात्पर्य है -सामर्थ्य, अर्थबोधकता तथा स्त्री देवता आदि। इसकी महत्ता ऋग्वैदिक काल से ही सूर्य के साथ ऊषा, इंद्र के साथ इंद्राणी, यम के साथ यमी आदि के वर्णन से सिद्ध है। परवर्ती काल मे भी प्रकृति-पुरुष, राधाकृष्ण, गौरीशंकर आदि युग्म पूजित रहे हैं। शक्ति से विलग कुछ है ही नहीं इसलिए आद्य गुरु शंकराचार्य ने जिन चार पाठों की स्थापना की उनमें शक्ति उपासना निर्बाध चली आ रही है। श्री विद्यायंत्र की स्थापना का श्रेय भी उनको ही दिया जाता है।
शंकर को जगतजननी और जगदीश्वर दोनों का आशीर्वाद प्राप्त हुआ था। काशी प्रवास के समय एक दिन मध्याह्न में वे अपने सखा उद्भ्रांत और शिष्य पद्मपाद के साथ गंगा जी की ओर जा रहे थे, तभी एक चांडाल भयावह स्वरुप में उनके समक्ष आ खड़ा हुआ। शिष्यों के साथ शंकर ने भी दूर हटने को कहा तो चांडाल ने कहा कि हे शंकर! यह आज्ञा किसके लिए है देह या देही के लिए? जब तुम्हारे और मेरे भीतर का आत्मतत्व एक ही है तो यह मिथ्या जाति अभिमान क्यों?
शंकर की अंत:प्रज्ञा जाग्रत हुई, वे समझ गए कि चांडाल के साथ चल रहे चार कुत्ते वेदों के प्रतीक है और उन्होंने कहा कि आपने युक्तिसंगत कहा, आप अवश्य दिव्यात्मा है, मुझे दर्शन देकर कृतार्थ करे। तब शंकराचार्य को भगवान चंद्रमौलि के साक्षात दर्शन हुए। भगवान शिव ने उनको बद्रीकाश्रम जाकर ब्रह्मसूत्र और उपनिषदों पर भाष्य लिखने का आदेश दिया। शंकराचार्य जी ने वैदिक और सनातन संस्कृति की पुनर्स्थापना की। पूरे भारत में भ्रमण कर अद्वैतवाद को मान्यतापूर्वक स्थापित किया।
आद्यगुरु ने भारतवर्ष की अखंडता को अक्षुण्ण रखने और राष्ट्र को एक सूत्र में आबद्ध करने के लिए दक्षिण के रामेश्वरम में अपने शिष्य सुरेश्वराचार्य (मंडन मिश्र) के संरक्षण में शृंगेरी मठ, उत्तर में प्रिय शिष्य त्रोटकाचार्य के नियंत्रण में ज्योतिर्मठ, पूर्व में ओड़ीशा मे अपने प्रथम शिष्य पद्मपाद के निरीक्षण मे गोवर्धन मठ और पश्चिम के द्वारिका में हस्तामलक या पृथ्वीधर के मार्गदर्शन में शारदामठ की स्थापना की।
