पूनम नेगी

पुरी के सागर तट पर निकलने वाली जगन्नाथ रथयात्रा उत्सव में आस्था का जो अद्भुत वैभव देखने को मिलता है, उसका कोई सानी नहीं है। ऐसा विराट लोकोत्सव दुनिया में कहीं और आयोजित नहीं होता। इसीलिए यह रथयात्रा सदियों से न केवल भारत अपितु विदेशी पर्यटकों के आकर्षण का प्रमुख केंद्र बनी हुई है। भले ही कोरोना संकट के दौर में इस उत्सव का आयोजन सीमित हो गया हो, लेकिन यह प्रतिबंध इस महायात्रा की महत्ता को जरा भी प्रभावित नहीं कर सकता। श्रीमद्भागवत महापुराण में इस महायात्रा का अत्यंत सारगर्भित तत्वदर्शन वर्णित है, जिसको इस लोकोत्सव के अवसर पर हर भावनाशील श्रद्धालु को जानना और हृदयंगम करना ही चाहिए।

इस शास्त्रीय विवेचन के मुताबिक लोकपालक का यह अनूठा रथ मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार, इन चार पायों के संतुलित समन्वय पर टिका है। ऐसे रथ रूपी शरीर में आत्मा रूपी भगवान जगन्नाथ विराजमान होते हैं। वस्तुत: यह रथयात्रा शरीर और आत्मा के मिलन की द्योतक है। यद्यपि प्रत्येक जीवधारी के शरीर में आत्मा होती है तो भी वह स्वयं संचालित नहीं होती, बल्कि उसे माया संचालित करती है।

सनातन हिंदू धर्म के इस विलक्षण तत्वदर्शन का सर्वाधिक सशक्त प्रमाण है जगत पालक की अद्भुत रथयात्रा। रथयात्रा उत्सव एक ऐसा अनूठा त्योहार है,जहां भक्तों से मिलने भगवान स्वयं मंदिर से बाहर निकल उनके बीच आते हैं और अपने आशीर्वाद से सबको कृतार्थ कर यह संदेश देते हैं कि ईश्वर की नजर में न छोटा है न कोई बड़ा, न कोई अमीर है और न गरीब। पौराणिक कथानक के मुताबिक सतयुग में दक्षिण भारत की अवंती नगरी के राजा इन्द्रद्युम्न भगवान श्रीहरि के परम भक्त थे।

उनकी इच्छा पर स्वयं देवशिल्पी विश्वकर्मा ने छद्मवेश में श्रीकृष्ण, उनके बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के अधोभागहीन जिन काष्ठ विग्रहों का निर्माण किया था, वे ही सदियों से ओड़ीशा के श्री जगन्नाथ मंदिर में पूजित होते आ रहे हैं। श्रीहरि की यह दस दिवसीय लोकयात्रा यूं तो आषाढ़ शुक्ल पक्ष द्वितीया से शुरू होती है, मगर रथों के निर्माण के लिए विशेष प्रकार की दारू वृक्ष (नीम) की लकड़ियां चुनने की शुरूआत वसंतपंचमी से हो जाती है। फिर अक्षय तृतीया से विशेष धार्मिक अनुष्ठान के साथ रथों का निर्माण शुरू होता है। खास बात है कि इन विशाल रथों के निर्माण में किसी भी धातु के कील-कांटे का प्रयोग नहीं होता। बताते चलें कि रथयात्रा के लिए श्री जगन्नाथ जी, उनके बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के क्रमश: 45, 44 व 43 फुट ऊंचे तीन रथ तैयार किए जाते हैं।

जगन्नाथ का रथ नंदीघोष 16 पहियों का, बलभद्र जी का रथ तालध्वज 14 पहियों का और सुभद्रा का रथ देवदलन 12 पहियों का बनता है। इन रथों को सजाने के लिए लगभग 1090 मीटर कपड़ा लगता है। लाल वस्त्रों के अलावा जगन्नाथ के रथ को पीले वस्त्रों, बलभद्र जी के रथ को नीले और सुभद्रा के रथ को काले वस्त्रों से मढ़ा जाता है। इसे खींचने वाली रस्सी को स्वर्णचूड़ा कहते हैं। आषाढ़ शुक्ल पक्ष द्वितीया के दिन पूजा-अर्चना के बाद ये तीनों भाई-बहन मंदिर से निकलकर विराट रथों पर सवार होकर भक्तों के बीच जाते हैं। जगन्नाथ मंदिर से गुंडीचा मंदिर और फिर जगन्नाथ मंदिर की यह यात्रा एकादशी तिथि को सम्पन्न होती है।

रथयात्रा मूलत: एक सामुदायिक पर्व है। इस अवसर पर घरों में कोई भी पूजा नहीं होती तथा न ही कोई उपवास रखा जाता है। यहां किसी प्रकार का जातिभेद नहीं है। जगन्नाथ को चढ़ाया हुआ चावल कभी अशुद्ध नहीं होता, इसे महाप्रसाद की संज्ञा दी गई है। स्कंद पुराण में स्पष्ट कहा गया है कि जो श्रद्धालु इस रथयात्रा में शामिल होता है, वह पुनर्जन्म के चक्र से मुक्त हो मोक्ष पा जाता है।

जानना दिलचस्प हो कि स्कंद पुराण में जगन्नाथ पुरी को धरती के बैकुंठ की संज्ञा दी गई है। जिसकी गणना भारत की प्राचीनतम सात नगरियों में होती है। इस मंदिर के विभिन्न चमत्कार आज भी लोगों को दांतों तले अंगुलियां दबाने को विवश कर देते हैं। मसलन चार लाख वर्गफुट में क्षेत्र में फैले और लगभग 214 फुट ऊंचे दुनिया के भव्यतम मंदिरों में शुमार इस मंदिर मुख्य गुंबद की छाया कभी भी धरती पर नहीं पड़ती। श्री जगन्नाथ मंदिर के ऊपर स्थापित भव्य लाल ध्वज सदैव हवा की विपरीत दिशा में लहराता है। किसी भी स्थान से आप मंदिर के शीर्ष पर लगे सुदर्शन चक्र को देखेंगे तो वह आपको सदैव अपने सामने ही लगा दिखेगा। मंदिर के ऊपर गुंबद के आस पास अब तक कोई पक्षी उड़ता हुआ नहीं देखा गया। इसके ऊपर से विमान भी नहीं उड़ पाता। इस दिव्य तीर्थ की आकृति एक दक्षिणवर्ती शंख की तरह है जिसे सागर का पवित्र जल सतत धोता रहता है।

आश्चर्य की बात है कि समुद्र की घोर गर्जना मंदिर के सिंहद्वार में पहला कदम रखते ही सुनाई पड़ना बिल्कुल बंद हो जाती है। यहां की रसोई दुनिया की सबसे निराली रसोई है जिसमें पूरा भोजन प्रसाद मिट्टी के पात्रों में चूल्हों पर बनाया जाता है। इस रसोई का भोजन कभी नहीं घटता तभी तो इसके स्वामी जगन्नाथ कहलाते हैं। मंदिर की रसोई में प्रसाद पकाने के लिए सात बर्तन एक-दूसरे पर रखे जाते हैं और सब कुछ लकड़ी पर ही पकाया जाता है। इस प्रक्रिया में शीर्ष बर्तन में सामग्री पहले पकती है फिर क्रमश: नीचे की तरफ एक के बाद एक पकती जाती है अर्थात सबसे ऊपर रखे बर्तन का खाना पहले पक जाता है। है न चमत्कार!