शास्त्री कोसलेंद्रदास
वैदिक सनातन धर्म ने पुनर्जन्म और कर्मविपाक जैसे सिद्धांत ग्रहण करते हुए श्राद्ध की परंपरा को ज्यों-का-त्यों रख लिया है। कारण है कि श्राद्ध के बहाने व्यक्ति को अपने पुरखों की याद बनी रह सके। इस प्रकार श्राद्ध-संस्था एक अति उत्तम है। इससे व्यक्ति अपने पूर्वजों का स्मरण कर लेता है जो जीवितावस्था में उसके और परिवार के प्रिय थे।
भगवान विष्णु हैं श्राद्ध के देव
विष्णुधर्मोत्तरपुराण में आया है कि श्राद्ध प्रथा का संस्थापन विष्णु के वराह अवतार के समय हुआ और विष्णु को पिता, पितामह एवं प्रपितामह को दिए गए तीन पिण्डों में अवस्थित मानना चाहिए। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि ईसा की कई शताब्दियों पूर्व श्राद्ध-प्रथा का प्रतिष्ठापन हो चुका था और यह मानव जाति के पिता मनु के समान ही प्राचीन है। श्राद्ध शब्द के अन्य प्रयोग सूत्र साहित्य में प्राप्त होते हैं। अत्यन्त तर्कशील एवं संभव अनुमान यह निकाला जा सकता है कि पितरों से संबंधित कृत्य के विशिष्ट नाम की आवश्यकता प्राचीन काल में नहीं समझी गई। जब पितरों के सम्मान में किए गए कृत्यों की संख्या में अधिकता हुई तो ‘श्राद्ध’ शब्द की उत्पत्ति हुई।
‘श्रद्धा’ से जुड़ा है ‘श्राद्ध’
श्राद्ध एवं श्रद्धा में घनिष्ठ संबंध है। श्राद्धकर्ता का अटल विश्वास रहता है कि मृत या पितरों के कल्याण के लिए ब्राह्मणों को जो कुछ दिया जाता है, वह उन्हें अवश्य मिलता है। स्कन्दपुराण का कथन है कि ‘श्राद्ध’ नाम इसलिए पड़ा है कि व्यक्ति को यह करना ही है। श्रद्धा को देवत्व दिया गया है और वह देवता के समान संबोधित है। निरुक्त में श्रद्धा को सत्य के अर्थ में व्यक्त किया है। वाजसनेयी-संहिता में कहा गया है कि प्रजापति ने ‘श्रद्धा’ को सत्य में और ‘अश्रद्धा’ को झूठ में रख दिया है। सत्य की प्राप्ति श्रद्धा से होती है।
ब्रह्मपुराण ने श्राद्ध की परिभाषा दी है – जो कुछ उचित काल, पात्र एवं स्थान के अनुसार शास्त्रानुमोदित विधि द्वारा पितरों को लक्ष्य करके श्रद्धापूर्वक दिया जाता है, वह श्राद्ध कहलाता है। मिताक्षरा ने श्राद्ध को परिभाषित किया है – पितरों को उद्देश्य करके उनके कल्याण के लिए श्रद्धापूर्वक किसी वस्तु का या किसी द्रव्य का त्याग श्राद्ध है। कल्पतरु की परिभाषा है – पितरों को उद्देश्य करके उनके लाभ के लिए यज्ञिय वस्तु का त्याग एवं ब्राह्मणों द्वारा उसका ग्रहण श्राद्ध है।
श्राद्ध के हैं दो भेद
श्राद्ध के कई प्रकार हैं, जिनमें दो प्रमुख हैं – एकोद्दिष्ट और पार्वण। एकोद्दिष्ट का संपादन व्यक्ति की मृत्यु होने से एक वर्ष के भीतर या मृत्यु के ग्यारहवें दिन होता है। मृत व्यक्ति के वार्षिक दिन पर भी एकोदृष्टि श्राद्ध किया जा सकता है। पार्वण श्राद्ध का संपादन किसी भी मास की अमावस्या या आश्विन मास के विशिष्ट सोलह दिनों में किया जाता है। इसमें कर्ता के तीन पितृ-पूर्वजों और मातृ-पूर्वजों के श्राद्ध किए जाते हैं।
एक अन्य श्राद्ध सपिंडन या सपिंडीकरण है, जो मरने के एक वर्ष बाद या बारहवें दिन किया जाता है। इसके करने से मृत व्यक्ति प्रेत-योनि से मुक्त होकर पितरों की श्रेणी में आता है। विधवा एवं दुहिता भी एकोद्दिष्ट श्राद्ध करती है किन्तु पुत्र, पौत्र और प्रपौत्र पार्वण श्राद्ध कर सकते हैं। ‘दायभाग’ का कथन है कि उत्तराधिकारी पार्वण श्राद्ध द्वारा मृत व्यक्ति का महान पारलौकिक कल्याण करते हैं।
’दायभाग’ ने एक स्थान पर पार्वण को ‘त्रैपुरुषिक’ संज्ञा दी है क्योंकि यह तीन पूर्वजों के कल्याण के लिए किया जाता है। व्यास का कथन है कि विधवा ब्रह्मचर्य में स्थित रहकर, तिलांजलि देकर (मृत पति को तिल एवं जल अर्पणकर) तथा उपवास करके अपने मृत पति को तारती है, क्योंकि पति और पत्नी एक-दूसरे के पुण्य-पाप के फल के अधिकारी हैं।
यदि मृत व्यक्ति के कई पुत्र हों तो केवल ज्येष्ठ को ही श्राद्ध करने का अधिकार है। यदि ज्येष्ठ पुत्र अनुपस्थित या पतित हो तो उसके पश्चात वाले पुत्र को अधिकार है, उससे छोटे को नहीं। यदि सभी पुत्र अलग हो गए हों तो सपिंडीकरण तक के कृत्य केवल ज्येष्ठ पुत्र करता है किन्तु वार्षिक श्राद्ध सभी पुत्र अलग-अलग कर सकते हैं। यदि पुत्र एकत्र ही रहते हैं तो सभी कृत्य, यहां तक कि वार्षिक श्राद्ध ज्येष्ठ पुत्र ही करता है।
‘कुतप’ का रखें ध्यान
‘कुतप’ सूर्योदय से आठवां मूहूर्त है और श्राद्ध ‘कुतप’ मुहूर्त में किया जाता है। ‘कुतप’ शब्द के आठ अर्थ हैं – मध्याह्न, पात्र, कम्बल, चांदी, दर्भ, तिल, गाय एवं दौहित्र (कन्या का पुत्र)। सामान्य नियम यही है कि श्राद्ध अपराह्न में किया जाता है।
श्राद्ध के लिए सर्वोत्तम है अमावस्या
शतपथब्राह्मण में कहा गया है कि पितृ-पुरुषों के लिए आहुतियां दी जाती हैं। उनके निमित्त बना हुआ भोजन ब्राह्मणों को दिया जाता है, क्योंकि वैदिक यज्ञों में जब अग्नि, इंद्र, प्रजापति एवं विष्णु आदि देवताओं को आहुतियां दी जाती हैं तो यज्ञ में नियुक्त पुरोहितों को भी भोजन एवं दक्षिणा दी जाती हैं। अत: ऐसा नहीं समझना चाहिए कि श्राद्ध के समय ब्रह्मभोज पश्चात्कालीन धारणा है।
पराशरस्मृति ने व्यवस्था दी है कि यदि कोई देशांतर में मर जाए और यह ज्ञात न हो कि वह व्यक्ति जीवित है या मृत या उसकी मृत्यु-तिथि का पता न चल सके तो कृष्ण पक्ष की अष्टमी या एकादशी या अमावस्या को मृत्यु तिथि मानकर उस दिन जल-तर्पण, पिंडदान एवं श्राद्ध कर लेना चाहिए। लघुहारीत का कथन है कि यदि श्राद्ध के समय कोई अवरोध हो जाए या मृत्यु तिथि ज्ञात न हो तो कृष्ण पक्ष की एकादशी को अंत्येष्टि-कृत्य कर देना चाहिए।