Benefits Of Shiv Hriday Stotra : शिव आराधना के लिए सावना का महीना सर्वोत्तम माना गया है। मान्यता है जो भी व्यक्ति सच्चे मन से भोलेनाथ की पूजा- अर्चना करता है, उसकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। वहीं आपको बता दें कि सावन महीने की शुरुआत हो चुकी है और यह 31 अगस्त तक चलेगा। ऐसे में हम आपको बताने जा रहे हैं ऐसे स्त्रोत के बारे में जिसके पाठ से आपको मनचाहा जीवनसाथी मिल सकता है। साथ ही आपको सभी कष्टों से मुक्ति मिल सकती है। आइए जानते हैं इस स्त्रोत के बारे में और इसके लाभ…

शिव हृदय स्तोत्र के लाभ

शास्त्रोंं के अनुसार भोलेनाथ ने खुद शिव हृदय स्तोत्र की रचना की है। इसलिए यह बहुत मंगलकारी है। जो व्यक्ति इसका प्रतिदिन पाठ करता है, उसको भोलेनाथ के ह्रदय में स्थान और शिवभक्ति का वरदान प्राप्त होता है। वहीं इसके पाठ से व्यक्ति को मनचाहा जीवनसाथी प्राप्त होता है। साथ ही सावन में इसके पाठ से दरिद्री से छुटकारा मिलता है। वहीं जीवन में सुख- समृद्धि का वास रहता है।

श्री शिव हृदय स्तोत्रम् ।
ओं प्रणवो मे शिरः पातु मायाबीजं शिखां मम ।
प्रासादो हृदयं पातु नमो नाभिं सदाऽवतु ॥ 1 ॥

लिङ्गं मे शिवः पायादष्टार्णं सर्वसन्धिषु ।
धृवः पादयुगं पातु कटिं माया सदाऽवतु ॥ 2 ॥

नमः शिवाय कण्ठं मे शिरो माया सदाऽवतु ।
शक्त्यष्टार्णः सदा पायादापादतलमस्तकम् ॥ 3 ॥

सर्वदिक्षु च वर्णव्याहृत् पञ्चार्णः पापनाशनः ।
वाग्बीजपूर्वः पञ्चार्णो वाचां सिद्धिं प्रयच्छतु ॥ 4 ॥

लक्ष्मीं दिशतु लक्ष्यार्थः कामाद्य काममिच्छतु ।
परापूर्वस्तु पञ्चार्णः परलोकं प्रयच्छतु ॥ 5 ॥

मोक्षं दिशतु ताराद्यः केवलं सर्वदाऽवतु ।
त्र्यक्षरी सहितः शम्भुः त्रिदिवं सम्प्रयच्छतु ॥ 6 ॥

सौभाग्य विद्या सहितः सौभाग्यं मे प्रयच्छतु ।
षोडशीसम्पुटतः शम्भुः सर्वदा मां प्ररक्षतु ॥ 7 ॥

एवं द्वादश भेदानि विद्यायाः सर्वदाऽवतु ।
सर्वमन्त्रस्वरूपश्च शिवः (भगवान शिव के प्रतीक) पायान्निरन्तरम् ॥ 8 ॥

यन्त्ररूपः शिवः पातु सर्वकालं महेश्वरः ।
शिवस्यपीठं मां पातु गुरुपीठस्य दक्षिणे ॥ 9 ॥

वामे गणपतिः पातु श्रीदुर्गा पुरतोऽवतु ।
क्षेत्रपालः पश्चिमे तु सदा पातु सरस्वती ॥ 10 ॥

आधारशक्तिः कालाग्निरुद्रो माण्डूक सञ्ज्ञितः ।
आदिकूर्मो वराहश्च अनन्तः पृथिवी तथा ॥ 11 ॥

एतान्मां पातु पीठाधः स्थिताः सर्वत्र देवताः ।
महार्णवे जलमये मां पायादमृतार्णवः ॥ 12 ॥

रत्नद्वीपे च मां पातु सप्तद्वीपेश्वरः तथा ।
तथा हेमगिरिः पातु गिरिकानन भूमिषु ॥ 13 ॥

मां पातु नन्दनोद्यानं वापिकोद्यान भूमिषु ।
कल्पवृक्षः सदा पातु मम कल्पसहेतुषु ॥ 14 ॥

भूमौ मां पातु सर्वत्र सर्वदा मणिभूतलम् ।
गृहं मे पातु देवस्य रत्ननिर्मितमण्डपम् ॥ 15 ॥

आसने शयने चैव रत्नसिंहासनं तथा ।
धर्मं ज्ञानं च वैराग्यमैश्वर्यं चाऽनुगच्छतु ॥ 16 ॥

अथाऽज्ञानमवैराग्यमनैश्वर्यं च नश्यतु ।
सत्त्वरजस्तमश्चैव गुणान् रक्षन्तु सर्वदा ॥ 17 ॥

मूलं विद्या तथा कन्दो नालं पद्मं च रक्षतु ।
पत्राणि मां सदा पातु केसराः कर्णिकाऽवतु ॥ 18 ॥

मण्डलेषु च मां पातु सोमसूर्याग्निमण्डलम् ।
आत्माऽत्मानं सदा पातु अन्तरात्मान्तरात्मकम् ॥ 19 ॥

पातु मां परमात्माऽपि ज्ञानात्मा परिरक्षतु ।
वामा ज्येष्ठा तथा श्रेष्ठा रौद्री काली तथैव च ॥ 20 ॥

कलपूर्वा विकरणी बलपूर्वा तथैव च ।
बलप्रमथनी चापि सर्वभूतदमन्यथ ॥ 21 ॥

मनोन्मनी च नवमी एता मां पातु देवताः ।
योगपीठः सदा पातु शिवस्य परमस्य मे ॥ 22 ॥

श्रीशिवो मस्तकं पातु ब्रह्मरन्ध्रमुमाऽवतु ।
हृदयं हृदयं पातु शिरः पातु शिरो मम ॥ 23 ॥

शिखां शिखा सदा पातु कवचं कवचोऽवतु ।
नेत्रत्रयं पातु हस्तौ अस्त्रं च रक्षतु ॥ 24 ॥

ललाटं पातु हृल्लेखा गगनं नासिकाऽवतु ।
राका गण्डयुगं पातु ओष्ठौ पातु करालिकः ॥ 25 ॥

जिह्वां पातु महेष्वासो गायत्री मुखमण्डलम् ।
तालुमूलं तु सावित्री जिह्वामूलं सरस्वती ॥ 26 ॥

वृषध्वजः पातु कण्ठं क्षेत्रपालो भुजौ मम ।
चण्डीश्वरः पातु वक्षो दुर्गा कुक्षिं सदाऽवतु ॥ 27 ॥

स्कन्दो नाभिं सदा पातु नन्दी पातु कटिद्वयम् ।
पार्श्वौ विघ्नेश्वरः पातु पातु सेनापतिर्वलिम् ॥ 28 ॥

ब्राह्मीलिङ्गं सदा पायादसिताङ्गादिभैरवाः ।
रुरुभैरव युक्ता च गुदं पायान्महेश्वरः ॥ 29 ॥

चण्डयुक्ता च कौमारी चोरुयुग्मं च रक्षतु ।
वैष्णवी क्रोधसम्युक्ता जानुयुग्मं सदाऽवतु ॥ 30 ॥

उन्मत्तयुक्ता वाराही जङ्घायुग्मं प्ररक्षतु ।
कपालयुक्ता माहेन्द्री गुल्फौ मे परिरक्षतु ॥ 31 ॥

चामुण्डा भीषणयुता पादपृष्ठे सदाऽवतु ।
संहारेणयुता लक्ष्मी रक्षेत् पादतले उभे ॥ 32 ॥

पृथगष्टौ मातरस्तु नखान् रक्षन्तु सर्वदा ।
रक्षन्तु रोमकूपाणि असिताङ्गादिभैरवाः ॥ 33 ॥

वज्रहस्तश्च मां पायादिन्द्रः पूर्वे च सर्वदा ।
आग्नेय्यां दिशि मां पातु शक्ति हस्तोऽनलो महान् ॥ 34 ॥

दण्डहस्तो यमः पातु दक्षिणादिशि सर्वदा ।
निरृतिः खड्गहस्तश्च नैरृत्यां दिशि रक्षतु ॥ 35 ॥

प्रतीच्यां वरुणः पातु पाशहस्तश्च मां सदा ।
वायव्यां दिशि मां पातु ध्वजहस्तः सदागतिः ॥ 36 ॥

उदीच्यां तु कुबेरस्तु गदाहस्तः प्रतापवान् ।
शूलपाणिः शिवः पायादीशान्यां दिशि मां सदा ॥ 37 ॥

कमण्डलुधरो ब्रह्मा ऊर्ध्वं मां परिरक्षतु ।
अधस्ताद्विष्णुरव्यक्तश्चक्रपाणिः सदाऽवतु ॥ 38 ॥

ओं ह्रौं ईशानो मे शिरः पायात् ।
ओं ह्रैं मुखं तत्पुरुषोऽवतु ॥ 39 ॥

ओं ह्रूं अघोरो हृदयं पातु ।
ओं ह्रीं वामदेवस्तु गुह्यकम् ॥ 40 ॥

ओं ह्रां सद्योजातस्तु मे पादौ ।
ओं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रौं ह्रः पातु मे शिखाम् ॥ 41 ॥

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