उत्तराखंड के चंपावत जिले में भारत और नेपाल की सीमा पर काली नदी के तट पर 51 सिद्ध पीठों में से एक मां पूर्णागिरि मंदिर है। पूर्णागिरि सिद्ध पीठ मां भगवती की 108 सिद्ध पीठों में भी गिनी जाती है। जिले के प्रवेशद्वार टनकपुर से 20 किलोमीटर दूर यह शक्तिपीठ अन्नपूर्णा चोटी के शिखर में समुद्र तल से तीन हजार फुट की उंचाई पर है।
पूर्णागिरि मंदिर की मान्यता है कि जब भगवान शिव शंकर तांडव करते हुए यज्ञ कुंड से मां सती के शरीर को लेकर आकाश गंगा मार्ग से जा रहे थे, तब भगवान विष्णु ने संसार को भयंकर प्रलय से बचाने के लिए मां सती के पार्थिव शरीर के अपने सुदर्शन चक्र से टुकड़े कर दिए जो धरती के विभिन्न स्थानों में जा गिरे। जहां मां सती के अंग गिरे, वहां शक्तिपीठों की स्थापना हुई। माता सती का नाभि अंग चंपावत जिले के अन्नपूर्णा पर्वत पर गिरने से मां पूर्णागिरि मंदिर की स्थापना हुई। तब से देश की चारों दिशाओं में स्थित मल्लिका गिरि, कालिका गिरि, हमला गिरि व पूर्णागिरि में इस पुण्य पर्वत स्थल पूर्णागिरि को सर्वोच्च स्थान प्राप्त हुआ।
काली नदी के तट पर घने जंगलों और पर्वतमालाओं के बीच अन्नपूर्णा पर्वत माला पर पूर्णागिरि का मंदिर है जो देवी शक्ति के साथ प्राकृतिक सौंदर्य के कारण आकर्षण का केंद्र बना हुआ है। चैत्र मास की नवरात्र में मां अन्नपूर्णा के दर्शन का विशेष महत्व है। यहां चैत्र नवरात्र से जेष्ठ मास की पूर्णिमा तक 90 दिन का मेला भी लगता हैं। इस मेले में भाग लेने के लिए कुमाऊं के अलावा नेपाल और उत्तर प्रदेश के पीलीभीत, बरेली, लखनऊ और पूर्वांचल के लोग बड़ी तादाद में भाग लेने आते हैं। वे मां के दर्शन कर पुण्य लाभ पाते हैं और मन्नत मांगते हैं। मां उनकी सभी मन्नतें पूरी करती है।
मां पूर्णागिरि का मंदिर भारत और नेपाल के आध्यात्मिक और सांस्कृतिक संबंधों को जोड़ने वाला पुण्य पवित्र स्थल है। आध्यात्मिक गुरु साधक पंडित गिरीश कौल कहते हैं कि मां पूर्णागिरि मंदिर और उसका आसपास का क्षेत्र देवी के साधकों के लिए अत्यंत महत्त्व रखता है। नेपाल के पंडित पुष्पराज पांडे का कहना है कि जितनी मान्यता पूर्णागिरि मंदिर की भारत में है, उससे कहीं अधिक इस मंदिर की मान्यता नेपाल में है। नेपाल के लोग शादी-विवाह मुंडन जनेऊ आदि के लिए पूर्णागिरि मंदिर में मन्नत मांगने आते हैं। यहां पर बच्चों के मुंडन और जनेऊ संस्कार भी कराते हैं।
पूर्णागिरि मंदिर के सिद्ध बाबा के विषय में कई किवदंतियां जनमानस में प्रचलित हैं। कहा जाता है कि एक साधु बाबा ने मां पूर्णागिरि के उच्च शिखर पर पहुंचने की कोशिश कर मां को चुनौती देने की ठानी तो मां ने क्रोध में साधु को नदी के पार फेंक दिया। बाद में उस साधु ने मां पूर्णागिरि से क्षमा याचना की तो उन्होंने क्षमा कर दिया और अनेक देवी सिद्धियों से दीक्षित कर सिद्ध बाबा के नाम से विख्यात किया।
आज भी यह सिद्ध बाबा का दिव्य स्थल पूर्णागिरि के भक्तों के लिए आकर्षण का केंद्र है। मान्यता है कि जो व्यक्ति मां पूर्णागिरि के दर्शन लाभ करेगा और उसके बाद सिद्ध बाबा के साधना स्थल के दर्शन करेगा तो उसकी मनोकामना तुरंत पूर्ण होगी। कुमाऊं से जो श्रद्धालु मां पूर्णागिरि के दर्शन करने आते हैं, वे सिद्धबाबा के नाम से मोटी रोटी बना कर सिद्ध बाबा के साधना स्थल पर श्रद्धापूर्वक चढ़ाते हैं।
मां पूर्णागिरि मंदिर की मान्यता है कि यहां पर भक्त लाल-पीले कपड़े को चीरकर आस्था और श्रद्धा के साथ मां के दरबार में बांधते हैं और इसे आस्था का चिरा कहा जाता है। वे मनोकामना पूर्ण होने पर श्रद्धालु मां पूर्णागिरि मंदिर के दर्शन व आभार प्रकट करने और चीर की गांठ खोलने आते हैं। मां के दरबार में प्रसाद चढ़ा के मत्था टेकते हैं। चैत्र मास से जेष्ठ मास तक चलने वाले 90 दिन के मेले में श्रद्धालु मीलों पैदल यात्रा करके मां पूर्णागिरि के दरबार में झंडे चढ़ाने आते हैं।
जाने- माने वन्य जीव प्रेमी जिम कार्बेट ने 1927 में क्षेत्र की अपनी यात्रा के दौरान मां पूर्णागिरि के प्रकाश पुंजों को देखकर इस देवी शक्ति के चमत्कार का अपने लेखों में उल्लेख किया है। मां पूर्णागिरि का मंदिर श्रद्धालुओं की आस्था और श्रद्धा का प्रमुख केंद्र है।