राजकुमार भारद्वाज
हरिद्वार में अखाड़ों की पेशवाई के साथ कुंभ मेला शुरू हो गया है। कुंभ मेला गृहस्थों और आम नागरिकों के मेले के साथ-साथ पुण्य कमाने का अवसर है, तो संत और आध्यात्मवेत्ताओं के लिए परमात्मा की कृपा प्राप्त करने और अहोभाव प्रकट करने का अवसर है। इस घट में घाट-घाट का जल संचित है और पूरा संसार कुंभ का प्रतीक है। जैसे कुंभ निर्माता कुंभकार है, वैसे ही ईश्वर भी कुंभकार है, जो जगत का सृष्टा है। इसलिए कुंभ में पूरा संसार समाया जान पड़ता है।
सनातन वैदिक हिंदू धर्म की परंपराओं का वैशिष्ट्य और अनुष्ठानों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पर्व कुंभ है। अन्य ग्रंथ, भाष्य और टीकाओं के अतिरिक्त, अमृत कुंभ का पद्म पुराण और स्कंद पुराण में विस्तृत वर्णन है। इसके अनुसार भारत में चार स्थान प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक कुंभ पर्व स्थल निश्चित हैं। कुंभ मेले में करोड़ों लोग आस्था की डुबकी लगाकर स्वयं को धन्य पाते हैं। कुंभ की पौराणिक कथाओं के अनुसार महर्षि दुर्वासा ने कुपित होकर देवराज इंद्र को श्राप दे दिया था। यह जानकर दैत्यों ने इंद्र पर हमला कर दिया। श्राप के कारण इंद्र और अन्य देवगण पराजित होकर भगवान विष्णु के शरण में गए।
भगवान विष्णु की युक्ति के अनुसार सागर मंथन हुआ। मंथन से अमृत कलश निकला, जिसे दैत्यों से बचाकर इंद्रराज का पुत्र जयंत आकाश में लेकर उड़ गया। जब शुक्राचार्य ने यह देखा, तो उन्होंने दैत्यों को जयंत के पीछे भेजा। जयंत और अमृत कलश की रक्षा के लिए देवगण फिर दैत्यों से भिड़ गए। 12 दिनों तक अविराम युद्ध हुआ। इस बीच छीनाझपटी में अमृत कलश छलक पड़ा, जिसकी बूंदें प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में गिरीं। इसलिए इन स्थानों पर कुंभ मेला होने लगा।
यह लोकधारणा है कि कुंभ पर्व स्थलों में कुंभ अवसर पर नदी में स्नान करने से अमरता और भगवत्ता प्राप्त होती है। सतयुग में तप, त्रेता में ज्ञान, द्वापर में यज्ञ और कलयुग में दान को प्रमुख बताया गया है। इसलिए यह भी मान्यता है कि कुंभ पर्व में किए गए दान का विशेष महात्म है। इस अवसर पर पुण्य लाभ के लिए सनातन वैदिक हिंदू धर्मावलंबियों में होड़ मचती है।
अमृत कलश की बूंदों के छलकने की परिघटना के अतिरिक्त भी कुंभ पर्व में बहुत कुछ है। कालांतर में इसे बहुआयामी आकार मिला है। यहां भारतीय संस्कृति का सृजन, मंथन, दर्शन और आरोहण होता है। यह ज्ञान का कुंभ है। ज्ञान ही वह अमृत है, जिसका पान कर व्यक्ति बुद्धत्व को प्राप्त होता है और बुद्ध, महावीर, अरविंद, नानक बनते हैं, जो पूरे विश्व कल्याण का मार्ग प्रशस्त करते हैं। कुंभ मेला आध्यात्मिक और सांस्कृतिक चिंतन-मनन-मंथन का लोकमंच है।
कुंभ में स्नान है, तप-ध्यान है, दान है, राम हैं, श्याम हैं और शिव हैं। कुंभ में संसार है, सार है, ऋषि हैं, मुनि हैं, तपस्या है। कुंभ में कर्म है, धर्म है, मर्म है, अध्यात्म है, ज्ञान है, विज्ञान है, संस्कार है, व्यवहार है, सेवा है। कुंभ अमृत वितरण का पर्व है। समुद्र मंथन में भगवान धन्वंतरि का प्रागट्य अमृत कलश धारण किए होता है। वही अमृत, जिसके देवगण भी अभिलाषी रहे।
कुंभ पर्थ पंथ, जाति, वर्ग और व्यक्ति सापेक्ष नहीं है, बल्कि उसका स्वरूप सर्वजनहिताय और सार्वभौम है। यथा सभी नदियां सागर में एकाकार हो जाती हैं। समाज के सभी जाति और पंथ कुंभ पर्व में स्व-होम कर एकरूप हो जाते हैं। कुंभ के अमृत वितरण में कोई बंधन नहीं, यहां वर्ग और वर्ण से परे सभी एक माला के मनके हो जाते हैं। समाज और राष्ट्र निर्माण के सारे बिंदुओं पर संतजन व सामाजिक कार्यकर्ता विमर्श करते हैं, ज्ञानचर्चा करते हैं।
भागवत और राम कथाओं में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष आधारित सनातन चिंतन की सरिता प्रवाहित होती है। ज्ञान ही अमृत है। कुंभ में संत समाज का शेष समाज से संवाद होता है। अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के राष्ट्रीय महामंत्री व श्री पंचदशनाम जूना अखाड़े के अंतरराष्ट्रीय संरक्षक श्रीमहंत हरिगिरि का कहना है, ‘कुंभ मेला भारतीय संस्कृति की अद्भुत पहचान है। संत परंपरा ही कुंभ मेले की मुख्य धरोहर है।’ इसलिए यहां अमीर-गरीब का भेद नहीं दिखता, जाति का भेद नहीं दिखता, सब गंगामय होकर आते हैं, शिवमय होकर जाते हैं।
कुंभ केवल शास्त्र ही नहीं शस्त्रों का संधान भी है। अखाड़ों के साधु जब हथियारों की सफाई करते हैं, उनका अभ्यास करते हैं तो वे वैदिक धर्म की रक्षा के लिए शस्त्र उठाने का संदेश भी देते हैं। कुंभ में कुल 13 अखाड़े शामिल होते हैं। अब 14वां किन्नर अखाड़ा भी शामिल होने लगा है। पहले 13 अखाड़ों का इतिहास बताता है कि 14वीं शताब्दी के बाद जब-जब विदेशी और मुस्लिम आक्रांताओं ने भारतवर्ष पर आक्रमण किया, तब कई बार इन अखाड़ों और विशेषकर नागा साधुओं ने विभिन्न राजाओं के साथ मिलकर विदेशी आक्रमणकारियों से मां भारती के मान की रक्षा की। राजसता के साथ धर्मसत्ता ने भी राष्ट्र की रक्षा की।
इसलिए ही कुंभ में अखाड़ों की ओर से शाही स्नान किया जाता है। इसमें साधु अपने पूर्ण वेश में सज्जित होकर अस्त्र-शस्त्रों का प्रदर्शन करते हुए पेशवाई करते हैं। समाज की समस्याओं का समाधान निकलता है। कुंभ के मौके पर सनातन संस्कृति और समाज संगठित है, यह संदेश, यह स्वर, यह ध्वनि निकलती है। यहां पर्यावरण, जल, जंगल, जमीन पर चर्चा होती है। नदियों के प्रश्न और हिमालय पर चर्चा होती है। जैव विविधता जैसे प्रश्नों पर गहन मंथन होता है। राष्ट्र की आंतरिक और बाह्य सुरक्षा जैसे विषयों पर सेमिनार होते हैं। शिक्षा, संस्कृत, संस्कृति और समाज के सामाजिक-सांस्कृतिक, सामाजिक-आर्थिक, सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर देश भर के विद्वान चर्चा करते हैं।