यह अनावश्यक रूप से हमारी बेचैनी बढ़ाता है। यह बेचैनी इतनी बढ़ जाती है कि हम तुलना करने की प्रवृत्ति को अपना अधिकार समझने लगते हैं। जब किसी भी प्रवृत्ति को हम अपना अधिकार समझने लगते हैं तो हमारे अंदर एक ऐसा आत्मविश्वास पैदा होता है जो हमारी बर्बादी की कहानी खुद लिखता है। यदि हमारा आत्मविश्वास भ्रम पर टिका हो तो यह सकारात्मक आत्मविश्वास नहीं, बल्कि नकारात्मक होता है। इसलिए बात-बात पर तुलना करने वाले इनसान को कभी चैन नहीं मिलता। हालांकि तुलना करना हमेशा गलत नहीं होता है।
समस्या यह है कि जहां तुलना करनी चाहिए, वहां हम इससे बचते हैं और जहां तुलना नहीं करनी चाहिए, वहां इसके लिए जी जान लगा देते हैं। इस संदर्भ में हमारा मनमाना व्यवहार यह प्रदर्शित करता है कि तुलना करने के मामले में हम हर समय एक दृष्टिकोण नहीं रखते हैं। इस तरह का व्यवहार हम अपनी सुविधानुसार ही करते हैं। यही कारण है कि हमारी यह सुविधा ही अंतत: हमारे लिए असुविधा बन जाती है।
दरअसल, तुलना करने की प्रक्रिया हमारे लिए सकारात्मक भी हो सकती है। लेकिन जरूरत से ज्यादा समझदारी दिखाने से यह प्रकिया हमारे लिए नकारात्मक सिद्ध होती है। कई बार दूसरे इनसान से तुलना करने का कोई फायदा इसलिए नहीं होता है। दरअसल, हम अपने दिमाग में पहले से ही विद्यमान विचार को स्थानांतरित करने के लिए तैयार नहीं होते हैं। अगर तुलना करने की प्रक्रिया में हम दूसरे इनसान से कमतर सिद्ध हो रहे हैं तो हम यह स्वीकार नहीं कर पाते हैं। यह अस्वीकार हमें वास्तविकता से इतनी दूर ले जाता है कि हम अपनी जमीन को स्वयं खोखली बना देते हैं। इससे अनेक समस्याएं जन्म लेती हैं। इस तरह हम अपनी जिंदगी को समस्याओं का घर बना लेते हैं।
दूसरे इनसान से अपनी तुलना कर हम काफी कुछ सीख भी सकते हैं। तुलना करने का लाभ तो तभी है जब हम दूसरों से कुछ सीखें भी। विडम्बना यह है कि जब दूसरों से सीखने की बारी आती है तो हम हथियार डाल देते हैं। इसलिए ऐसे बहुत कम लोग है जो इस प्रक्रिया के माध्यम से कुछ सीख पाते हैं। अगर तुलना करने की प्रक्रिया में कोई हमसे बेहतर सिद्ध हो रहा है तो हम अपने अंदर सुधार कर उससे भी बेहतर बन सकते हैं। निश्चित रूप से बेहतर बनने के लिए हमें अपनी आदत सुधारने होगी और परिश्रम करना होगा। हम जितना परिश्रम तुलना करने में करते हैं उससे आधा परिश्रम भी स्वयं को सुधारने में नहीं करते हैं।
दूसरे इनसान से तुलना करने के बावजूद यदि हम अपनी कमियां नहीं ढूंढ़ पाते हैं तो इसका क्या अर्थ है। सवाल यह है कि जब तुलना करने का कुछ लाभ ही नहीं है तो हम तुलना क्यों करते हैं? क्या तुलना कर हम स्वयं के अहम को संतुष्ट करना चाहते हैं? लेकिन इस प्रक्रिया से हमारा अहम ही कहां संतुष्ट हो पाता है। हम तो और ज्यादा असंतुष्ट हो जाते हैं। सवाल यह भी कि क्या केवल असंतुष्ट लोग ही तुलना करते हैं? यह देखने में आया है कि संतुष्ट लोग भी तुलना कर असंतुष्ट होते रहते हैं। हालांकि इस जीवन में संतुष्ट कोई नहीं है। यहां संतुष्ट का अर्थ ऐसे लोगों से है जो आर्थिक, शारीरिक या किसी अन्य रूप में स्वयं को बेहतर समझते हैं।
यह स्पष्ट है कि सभी प्रकार के लोग तुलना करते हैं लेकिन इसका सकारात्मक पक्ष नहीं चुन पाते हैं। जिस इनसान से तुलना कर रहे है, यदि वह इनसान हमसे ऊंचा है तो हम उसकी अच्छाइयों को ग्रहण करना चाहिए। हम उसकी ऊंचाई तक पहुंचने का हर संभव प्रयास करें। यह विडम्बना है कि हम तुलना करने की प्रक्रिया के माध्यम से कुंठा का रास्ता पकड़ लेते हैं। यदि हम तुलना को प्रगति का माध्यम बना सकें तो इससे बेहतर क्या होगा।