शास्त्री कोसलेंद्रदास

मृत्यु के उपरांत मनुष्य का क्या होता है? यह ऐसा प्रश्न है जो आदिकाल से चला आ रहा है। इस रहस्य का भेदन आज तक संभव नहीं हो सका है। प्रत्येक धर्म में इसके विषय में पृथक दृष्टिकोण है। सामान्यत: मृत्यु विलक्षण एवं भयावह समझी जाती है। दार्शनिक मनोवृत्ति वाले व्यक्ति इसे मंगलप्रद एवं शरीर से बंदी आत्मा की मुक्तिके रूप में ग्रहण करते हैं। भारतरत्न डॉ. पांडुरंग वामन काणे ने ‘धमर्शास्त्र का इतिहास’ में इस पर विस्तार से चिंतन किया है।

कठोपनिषद में आया है कि जब मनुष्य मरता है तो एक संदेह उत्पन्न होता है। कुछ लोगों के मत से मृत्यु के उपरांत जीवात्मा की सत्ता रहती है, किंतु कुछ ऐसा नहीं मानते हैं। एक धारणा है कि मृतों का एक भिन्न लोक है, जहां मृत्यु के बाद जीव जाता है। कुछ लोगों की धारणा है कि सुकृत्यों एवं दुष्कृत्यों के फलस्वरूप शरीर के अतिरिक्तप्राणी का विद्यमान अंश स्वर्ग और नरक में जाता है।

कुछ लोग आवागमन और पुनर्जन्म में विश्वास रखते हैं। ब्रह्मपुराण ने ऐसे व्यक्तियों का उल्लेख किया है, जिन्हें मृत्यु सुखद एवं सरल प्रतीत होती है, न कि पीड़ाजनक एवं चिंतायुक्त। जो झूठ नहीं बोलता, जो मित्र के प्रति कृतघ्न नहीं है, जो आस्तिक है, जो देवपूजा-परायण है और ब्राह्मणों का सम्मान करता है तथा जो किसी से ईर्ष्या नहीं करता, वह सुखद मृत्यु पाता है। जो सत्यवादी हैं, क्रोध नहीं करते, हिंसा नहीं करते, किसी से ईर्ष्या नहीं करते और कपटी नहीं हैं, वे शतायु होते हैं। नास्तिक, यज्ञ न करने वाले, गुरुओं एवं शास्त्रों की आज्ञा के उल्लंघनकर्ता, धर्म न जानने वाले एवं दुष्कर्मी लोग अल्पायु होते हैं।

भारत के अधिकांश भागों में ऐसी प्रथा है कि जब व्यक्ति मरणासन्न रहता है तो लोग उसे खाट से उठाकर पृथ्वी पर लिटा देते हैं। यह प्रथा यूरोप में भी है। ‘शुद्धिप्रकाश’ में आया है कि जब कोई व्यक्ति मृतप्राय हो, उसकी आंखें बंद हो गई हों और वह खाट से नीचे उतार दिया गया हो तो उसके पुत्र या किसी संबंधी को चाहिए कि वह उससे निम्न में से कोई एक दान कराए – गौ, भूमि, तिल, सोना, घृत, वस्त्र, धान्य, गुड़, रजत एवं नमक। गरुडपुराण ने तिल, लोहा, सोना, रूई, नमक, सात प्रकार के अन्न, भूमि और गौ के दान की व्यवस्था दी है।

आदिकाल से यह विश्वास है कि मरते समय व्यक्ति जो विचार रखता है, उसी के अनुसार दैहिक जीवन के उपरांत उसकी जीवात्मा आक्रांत होती है। पद्मपुराण का कथन है कि मृत्यु के समय व्यक्ति को सांसारिक मोह-माया को छोड़कर भगवान हरि या शिव का स्मरण करना चाहिए और ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ का जप करना चाहिए। पुत्र-पुत्रियों और संबंधियों को उसे गीता, भागवत, रामायण व उपनिषदों का पाठ सुनाना चाहिए।

गौतम-पितृमेधसूत्र के मत से चिता का निर्माण पवित्र वृक्षों की लकड़ी से करना चाहिए। शव किसी वाहन में या चार पुरुषों द्वारा ढोया जाना चाहिए। अंत्येष्टि कर्ता को चिता की परिक्रमा करनी चाहिए और उसके उस भाग में अग्नि प्रज्वलित करनी चाहिए, जहां पर शव का सिर रखा रहता है। अंत्यकर्मदीपक का कथन है कि अंत्येष्टि-क्रिया करने वाले को सबसे पहले मुंडन कराकर स्नान करना चाहिए और तब शव को श्मशान स्थल ले जाना चाहिए। गरुडपुराण के मत से शव-दाह के समय तो रूदन ठीक है पर दाह-कर्म एवं जल-तर्पण के उपरांत रोना नहीं होना चाहिए।