योगेश कुमार गोयल
पंच पर्व महोत्सव दिवाली के बाद प्रतिवर्ष प्रकृति की पूजा का महापर्व छठ मनाया जाता है। इस वर्ष यह पर्व 10 नवंबर को मनाया जा रहा है। सूर्य को एकमात्र ऐसा भगवान माना जाता है, जो वास्तव में हर किसी को दिखाई देते हैं और छठ पर्व पर सूर्य भगवान की ही पूजा होती है। कार्तिक शुक्ल पक्षकी षष्ठी को मनाए जाने वाले इस चार दिवसीय उत्सव की शुरुआत कार्तिक शुक्ल चतुर्थी को तथा समाप्ति कार्तिक शुक्ल सप्तमी को होती है और इस दौरान श्रद्धालु 36 घंटे का कठिन व्रत रखते हैं।
छठ पूजा की शुरुआत चतुर्थी के दिन नहाय खाय से होती है। अगले दिन खरना होता है, तीसरे दिन छठ पर्व का प्रसाद तैयार किया जाता है और स्नान कर अस्त होते सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। सप्तमी को चौथे और अंतिम दिन उगते सूर्य की पूजा-आराधना के साथ इस महापर्व का समापन होता है। चूंकि सूर्योपासना का यह महापर्व कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी को मनाया जाता है, इसीलिए इसे छठ कहा जाता है। सही मायनों में यह आस्था और निष्ठा का अनुपम लोकपर्व है।
उत्तर भारत और विशेषकर पर बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा नेपाल के तराई क्षेत्रों में मनाया जाने वाला सूर्योपासना का यह महापर्व सूर्य, उनकी पत्नी उषा और प्रत्यूषा, प्रकृति, जल, वायु और सूर्य की बहन छठी मैया को समर्पित है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार छठी माता को सूर्य देवता की बहन माना जाता हैं। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार छठी मैया संतानों की रक्षा करती हैं और उनको लंबी आयु प्रदान करती हैं।
कहा जाता है कि छठ पर्व में सूर्य की उपासना करने से वे प्रसन्न होकर घर-परिवार में सुख-समृद्धि, रोगमुक्ति, सम्पन्नता और मनोवांछित फल प्रदान करती हैं। उषा तथा प्रत्यूषा को सूर्य की शक्तियों का मुख्य स्रोत माना गया है, इसीलिए छठ पर्व में सूर्य तथा छठी मैया के साथ इन दोनों शक्तियों की भी आराधना की जाती है। प्रात:काल में सूर्य की पहली किरण (उषा) और सायंकाल में सूर्य की अंतिम किरण (प्रत्यूषा) को अर्घ्य देकर दोनों को नमन किया जाता है।
छठ पर्व के प्रसाद में प्राय: चावल के लड्डू बनाए जाते हैं और बांस की टोकरी में प्रसाद तथा फल सजाकर इस टोकरी की पूजा की जाती है। व्रत रखने वाली महिलाएं सूर्य को अर्घ्य देने तथा पूजा के लिए तालाब, नदी अथवा घाट पर जाकर स्नान कर डूबते हुए सूर्य की पूजा करती हैं और अगले दिन सूर्योदय के समय सूर्य को अर्घ्य देकर पूजा करने के पश्चात प्रसाद बांटकर छठ पूजा का समापन होता है।
पर्यावरणविदों के अनुसार यह पर्व सबसे ज्यादा पर्यावरण अनुकूल हिन्दू त्योहार है, जो नदियों को प्रदूषण मुक्त बनाने की प्रेरणा देता है। छठ पूजा के अवसर पर नदियों, तालाबों तथा अन्य जलाशयों के किनारे पूजा की जाती है, जिससे लोगों को ऐसे जलस्रोतों के आसपास साफ-सफाई रखने की प्रेरणा मिलती है। दरअसल धार्मिक मान्यताओं के अनुसार छठ पूजा साफ-सुथरी नदी, तालाबों या अन्य जलस्रोतों के किनारे ही की जाती है, इसीलिए पूजा से पहले इन जलस्रोतों के आसपास पूरी साफ-सफाई करने का विधान है।
इस पर्व की शुरुआत को लेकर कुछ मान्यताएं महाभारत काल से जुड़ी हैं। पांडवों की पत्नी द्रोपदी द्वारा परिजनों के उत्तम स्वास्थ्य की कामना और लंबी आयु के लिए नियमित रूप से सूर्य की पूजा करने का उल्लेख मिलता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार पांडव जब अपना सारा राजपाट जुए में हार गए थे, तब श्रीकृष्ण के निर्देशानुसार द्रोपदी ने छठ व्रत रखा और छठी मैया के आशीर्वाद से उनकी मनोकामनाएं पूर्ण होने पर पांडवों को राजपाट वापस मिला।
माना जाता है कि सर्वप्रथम महाबली कर्ण ने ही सूर्यदेव की पूजा शुरू की थी और आज भी छठ पर्व में सूर्य को अर्घ्य देने का विशेष महत्व है। एक मान्यता यह भी है कि देवमाता अदिति ने प्रथम देवासुर संग्राम में असुरों से देवताओं के हार जाने पर तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति के लिए देवारण्य के देव सूर्य मंदिर में छठी मैया की आराधना की थी। छठी मैया ने उनकी आराधना से प्रसन्न होकर उन्हें सर्वगुण सम्पन्न तेजस्वी पुत्र को जन्म देने का वरदान दिया, जिसके बाद अदिति ने त्रिदेव रूप आदित्य भगवान को जन्म दिया, जिन्होंने देवताओं को असुरों पर विजय दिलाई। कहा जाता है कि तभी से छठ पर्व मनाए जाने का चलन शुरू हो गया।
ऐसी मान्यता है कि लोक मातृका षष्ठी की पहली पूजा सूर्यदेव ने ही की थी। सूर्य को ज्योतिष विधा में सभी ग्रहों का अधिपति माना गया है। इसीलिए मान्यता है कि यदि समस्त ग्रहों को प्रसन्न करने के बजाय केवल सूर्यदेव की ही आराधना की जाए तो कई लाभ मिल सकते हैं।