शास्त्री कोसलेन्द्रदास
व्यक्ति की दैनिक जीवनचर्या उसके कल्याण का मार्ग प्रशस्त करती है। व्यक्ति के जीवन का प्रतिक्षण शास्त्रों की मर्यादा के अनुकूल होने पर वह व्यवस्थित जीवन जी सकता है। धर्मशास्त्र के ग्रंथों ने गृहस्थाश्रम की महत्ता गाई है। गौतम धर्मसूत्र के अनुसार गृहस्थ सभी आश्रमों का आधार है क्योंकि ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम संतान उत्पन्न नहीं करते। महाभारत में आया है कि जिस प्रकार सभी प्राणी माता के आश्रित होते हैं, उसी प्रकार अन्य आश्रम गृहस्थों पर स्थित हैं। रामायण ने भी यही बात कही है। इस कारण शास्त्रों ने व्यक्ति के दिन का विभाजन उसके कार्यों के अनुसार किया है।
30 मुहूर्तों में बंटा है दिन
दिन को दो भागों में बांटा गया है – पूर्व (दोपहर से पूर्व) एवं अपराह्न (दोपहर के उपरांत)। कहीं-कहीं दिन को तीन भागों में भी बांटा गया है – प्रात:, मध्याह्न एवं सायं। सूर्योदय से सूर्यास्त तक के दिन को पांच भागों में बांटा गया है – प्रात: या उदय, संगव, माध्यंदिन या मध्याह्न, अपराह्न और सायाह्न या अस्तगमन या सायं। इसमें से प्रत्येक काल तीन मुहूर्तों का होता है और प्रत्येक मुहूर्त 48 मिनट का होता है। 24 घंटे के दिन को 30 मुहूर्तों में विभाजित किया गया है। ऐसे ही पूरे वर्ष को 10800 मुहूर्तों में बांटा गया है। तैत्तिरीय संहिता ने दिन के चित्र और केतु आदि 15 मुहूर्तों के नाम दिए हैं।
सूर्योदय से शुरू होता है दिन
स्मृतियों ने दिन को आठ भागों में बांटा है। महाभारत ने दिन के छठे भाग में भोजन करना देरी से माना है। मनुस्मृति के अनुसार मल-मूत्र त्याग (मैत्र), दंतधावन, प्रसाधन, स्नान एवं देवपूजन, ये सब कार्य पूर्वाह्न में हो जाने चाहिए। सूर्यसिद्धांत के अनुसार दिन की शुरूआत सूर्योदय से मानी जाती है। पर व्यावहारिक रूप में सूर्योदय के कुछ पूर्व भी दिन का आरंभ माना जाता है। ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार सूर्योदय के पूर्व चार घटिकाओं से लेकर सूर्यास्त के उपरांत चार घटिकाओं तक दिन का काल रहता है। जब कोई सूर्योदय से पूर्व स्रान कर लेता है तो वह स्नान सूर्योदय के उपरांत वाले दिन का ही कहा जाता है।
ब्राह्म-मुहूर्त में उठकर करें चिंतन
मनु, याज्ञवल्क्य तथा कुछ अन्य स्मृतियों के अनुसार ब्राह्म-मुहूर्त में उठ जाना चाहिए और धर्म एवं अर्थ के विषय में सोचना चाहिए। साथ ही सोचना चाहिए दिन के शारीरिक कर्मों के विषय में और सोचना चाहिए वैदिक नियमों के वास्तविक अर्थों के बारे में। बंगाल में बारहवीं शती में हुए मनुस्मृति के सुविख्यात टीकाकार कुल्लूक भट्ट के मत से मुहूर्त शब्द सामान्यत: समय का ही द्योतक है। कुल्लूक भट्ट का मानना है कि ब्राह्म मुहूर्त शब्द इसलिए प्रयुक्त है कि यही वह समय है कि किसी की बुद्धि एवं कविता बनाने की शक्ति अपने सर्वोच्च रूप में रहती है।
उठकर बोलें चार नाम
स्मृतिमुक्ताफल ने एक श्लोक उद्धृत किया है – पुण्यश्लोको नलो राजा पुण्यश्लोको युधिष्ठिर:। पुण्यश्लोका च वैदेही पुण्यश्लोको जनार्दन:।। – राजा नल, धर्मराज युधिष्ठिर, माता सीता एवं पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण पुण्यश्लोक कहे गए हैं। पुण्यश्लोक अर्थात जिनके यश का गान करना पवित्र कार्य है।
नियमित करें पंच महायज्ञ
वैदिक काल से ही पंच महायज्ञों के संपादन की व्यवस्था पाई जाती है। शतपथ-ब्राह्मण का कथन है कि भूत, मनुष्य, पितृ, देव और ब्रह्म नामक पांच महायज्ञ हैं, जिन्हें नित्य किया जाता है। जब अग्नि में आहुति दी जाती है, भले ही वह मात्र समिधा ही हो तो वह देव यज्ञ है। जब पितरों को स्वधा (श्राद्ध) दी जाती है, चाहे वह जल ही क्यों न हो, तो वह पितृयज्ञ है। जब जीवों को भोजन दिया जाता है तो वह भूत यज्ञ कहलाता है। जब अतिथियों को भोजन दिया जाता है तो उसे मनुष्य यज्ञ कहते हैं। जब स्वाध्याय किया जाता है, तो चाहे एक ही मंत्र पढ़ा जाए तो वह ब्रह्म यज्ञ है।
अकेले नहीं, सबको खिलाकर खाएं
ऋग्वेद ने कहा है कि जो अकेला खाता है, वह पाप खाता है। भोजन करने के सिलसिले में दक्षस्मृति ने लिखा है कि दिन के पांचवें भाग में गृहस्थ को अपने सामर्थ्य के अनुसार देवों, पितरों, मनुष्यों एवं कीट-पतंगों को खिलाकर ही शेष भोजन का उपभोग करना चाहिए। दिन के पांचवे भाग में भोजन करने का तात्पर्य है दोपहर के उपरांत लगभग डेढ़ घंटे के भीतर गृहस्थ को भोजन कर लेना चाहिए। ऋग्वेद से पता चलता है कि भोजन सदा बैठकर किया जाता था। तैत्तिरीय एवं शतपथ-ब्राह्मण के अनुसार भोजन दिन में दो बार किया जाता था।
आपस्तंब, वसिष्ठ, विष्णु धर्मसूत्र और मनु के अनुसार खाते समय पूर्वाभिमुख होना चाहिए। वामन एवं विष्णुपुराण ने पश्चिम एवं दक्षिण में मुख करके खाना मना किया है। भोजन एकांत में करना चाहिए पर पुत्र, भाई और नौकरों के साथ खाया जा सकता है। हथेली या हाथ में लेकर कोई पदार्थ नहीं खाना चाहिए। भोजन करने से पूर्व हाथ और पांव, दोनों धोने चाहिए। सभी धर्मशास्त्रों ने एकमत होकर भोजन करते समय मौन रहने की बात कही है।
आहार हो शुद्ध
आहार की शुद्धि पर प्राचीन काल से ही बल दिया गया है। छान्दोग्य-उपनिषद ने लिखा है कि आहार की शुद्धि से सत्त्व की शुद्धि, सत्त्व शुद्धि से सुंदर एवं अटल स्मृति प्राप्त होती है। अटल स्मृति (वास्तविक ज्ञान) से सारे बंधन (जिनसे आत्मा इस संसार में बंधा रहता है) कट जाते हैं। जगद्गुरु रामानुजाचार्य ने ‘श्रीभाष्य’ में आहार की शुद्धि को भक्ति की उत्पत्ति के लिए अनिवार्य माना है।
धर्म से उत्पन्न होता है सुख
महाभारत में आया है कि पर-स्त्री से असंसर्ग, अपनी स्त्री एवं धरोहर की रक्षा, न दी हुई वस्तु के ग्रहण-भाव से दूर रहना और मद्य एवं मांस से दूर रहना – ये पांच धर्म हैं, जिनकी कई शाखाएं हैं। इनसे सुख की उत्पत्ति होती है। व्यक्ति को दैनिक जीवन में धर्म का पालन करते हुए सुख प्राप्त करने का सतत प्रयास करना चाहिए।