पूनम नेगी
ऋतु परिवर्तन की अवधि (चैत्र व आश्विन) में पड़ने वाले वासंतिक तथा शारदीय नवरात्र को अध्यात्म के क्षेत्र में मुहर्त विशेष की मान्यता प्राप्त है। इस अवधि में जगतजननी भगवती दुर्गा के नौ स्वरूपों (शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कूष्माण्डा, स्कन्दमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी एवं सिद्धिदात्री) की अभ्यर्थना पुरुषार्थ साधिका देवी के रूप में की जाती है। पुराणों में से एक मार्कण्डेय पुराण के ‘दुर्गा सप्तशती’ अंश में भगवती दुर्गा को परम शक्ति के रूप में निरूपित किया गया है।

कथा कहती है कि देवासुर संग्राम में पराजित देवताओं ने दुरात्मा महिषासुर के अत्याचारों से मुक्ति हेतु त्रिदेवों की स्तुति की तब त्रिदेवों के शरीर से निकला तेजपुंज एक तेजस्वी नारी के रूप में परिवर्तित हो गया। फिर समस्त देवगणों ने उस तेजस्वी महाशक्ति को अपने-अपने अमोघ अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित किया। इस तरह, भगवती दुर्गा को असुरों से युद्ध के लिए सज्ज किया। कथा कहती है कि इन दिव्यास्त्रों को धारण कर महाशक्ति दुर्गा ने पाश्विक प्रवृत्तियों के प्रतीक महिषासुर व उसके असुर सेनानियों का वध कर धरती पर देवत्व का साम्राज्य स्थापित किया।

पं. श्रीरामशर्मा आचार्य ने दुर्गा ‘सप्तशती’ में वर्णित मां जगदंबा के उपरोक्त महात्म्य की युगानुकूल व्याख्या करते हुए लिखा है दुर्गा का शाब्दिक अर्थ है दुर्ग यानी किला। अर्थात उनके दुर्ग की छत्रछाया सारे दुख-दुर्गुण, कष्ट-पीड़ा सभी दूर कर देती है। मगर मां दुर्गा के दुर्ग में प्रवेश कर पाना सबके लिए संभव नहीं; उसमें निष्कपट व निश्छल मनुष्य को ही प्रवेश मिल सकता है। मां दुर्गा दुर्गतिनाशिनी कही जाती हैं।

उन्होंने अनेक असुरों को मारकर प्रतीकात्मक रूप से यह संदेश दिया कि महिषासुर, धूम्र लोचन, चंड-मुंड, शुंभ-निशुम्भ, मधु-कैटभ आदि असुर हमारे भीतर स्थित आलस, लालच और घमंड जैसी दुष्प्रवृत्तियों के प्रतीक हैं, जो हमें पतन की ओर ले जाने का प्रयास करते हैं। मां आद्यशक्ति के इस कथाप्रसंग में श्री विष्णु के कान के मैल से मधु व कैटभ दैत्यों की उत्पत्ति बताई गई है। मधु व कैटभ वध का प्रतीकार्थ यह है कि व्यक्ति भले ही कितना बलशाली हो जाए लेकिन कामसक्त होने पर दुर्गति को ही प्राप्त होता है। दुर्गति नाशिनी दुर्गा समस्त दुखों का नाश करने वाली हैं। इस कथा से प्रेरणा लेकर जो साधक नवरात्र काल में भगवती दुर्गा के नौ रूपों की आराधना करते हैं वे कर्म अभिमान से मुक्त रहते हैं।

प्रस्तुत चैत्र नवरात्र काल इस कारण और भी विशिष्ट है क्योंकि इसके साथ हमारे भारतीय नववर्ष का भी शुभारम्भ होता है। हिंदू धर्म में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को स्वयंसिद्ध अमृत तिथि माना गया है। यानी वर्षभर का सबसे उत्तम दिन।

हमारे तत्वदर्शी मनीषियों ने प्रतिपादित किया था कि आत्मिक प्रगति के लिए वैसे तो किसी अवसर विशेष की बाध्यता नहीं होती लेकिन नवरात्र बेला में किए गए उपचार संकल्प बल के सहारे शीघ्र गति पाते तथा साधक का वर्चस्व बढ़ाते हैं। कारण कि सूक्ष्म जगत के दिव्य प्रवाह भी इन दिनों तेजी से उभरते व मानवी चेतना को प्रभावित करते हैं। इसी कारण इस समय देव प्रकृति की आत्माएं किसी अदृश्य प्रेरणा से प्रेरित होकर आत्मकल्याण व लोकमंगल के क्रिया-कलापों में अनायास ही रस लेने लगती हैं। वर्तमान समय में जिस तरह व्यक्ति की जीवन के प्रति आस्थाएं गड़बडाती जा रही हैं।

अचिन्त्य चिंतन से उत्पन्न तनाव विस्फोटक होता जा रहा है। सच्ची प्रसन्नता व प्रफुल्लता कहीं-कहीं अपवाद स्वरूप दृष्टिगोचर होती है। सभी को अभाव की शिकायत है। चाहे धन का अभाव हो, चाहे शारीरिक सामर्थ्य का और चाहे मानसिक शक्ति व संतुलन का। प्रत्येक भावनाशील युग की इन भयावह समस्याओं से मुक्ति चाहता है। कैसे मिलेगी मुक्ति? निसंदेह शक्ति के अवलम्बन से।
मगर इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि आज के आपाधापी और तेजी से दौड़ते समय में आम आदमी के पास न तो सुदृढ़ मनोबल है और न ही कड़ी तपश्चर्या का समय; लेकिन यदि नौ दिनों के इस विशिष्ट नवरात्र काल में जब वातावरण में परोक्ष रूप से दैवीय शक्तियों के अप्रत्याशित अनुदान बरसते हैं, छोटी सी अनुष्ठानिक साधना की जा सके तो चमत्कारी परिणाम प्राप्त किए जा सकते हैं।