नरपतदान चारण

सत्य में समस्त मानवीय गुणों की समग्रता होती है। सत्य को पाना ही सकल गुणों के अर्जन के समरूप है। सत्य को जानना और पालन करना उच्च जीवन चरित्र का आधार होता है। सत्य एक गहरा और व्यापक नैतिक मूल्य है। इसका क्षेत्र विस्तृत है। इसीलिए तो कहा है कि ईश्वर सत्य है, जगत मिथ्या। सत्य बोलना भी सत्य है। सत्य बातों का समर्थन करना भी सत्य है।

सत्य समझना, सुनना और सत्य आचरण करना सत्य है। जो जो दिखाई दे रहा है, वह सत्य नहीं है, लेकिन उसे सही रूप में समझना सत्य है अर्थात जो-जो असत्य है, उसे जान लेना भी सत्य है। असत्य को जानने से मन का परिष्कार होता है और फिर उसी से सत्य के साक्षात्कार की राह प्रशस्त होती है। गौतमबुद्ध के अनुसार चार प्रकार की सत्यता होती है।

कष्ट या भोग की, कष्ट या भोग के कारण की, कष्ट या भोग के अंत की ओर इसके रास्ते की जो इनके निवारण की तरफ जाता है। एक बार भी लालच और स्वार्थ के जाल में फंसकर झूठ का सहारा लेने वाला, कालांतर में लोगों का विश्वास और स्वयं की प्रतिष्ठा दोनों ही खो बैठता है, जबकि सच न केवल विश्वसनीय और प्रतिष्ठित होता है बल्कि निश्चिंत भी होता है और इस सच से, अनजाने में ही, न जाने अपना और कितनों का भला हो जाता है।

सच निर्भीकता का सूचक है और झूठ कमजोरी और डर का। सच्चा व्यक्ति जितना साहसी होता है उतना ही मानसिक मजबूत और तनाव से मुक्त रहता है। क्योंकि सत्य शाश्वत होता है, उसे स्मरण करने के लिए व्यर्थ श्रम नहीं करना पड़ता। हालांकि सच का पालन श्रमसाध्य कर्म है। सत्यवादी की सच्ची बातों से, उसके आसपास स्वार्थी और चापलूस लोगों की भीड़ खड़ी नहीं होती। अपने सत्य की स्थापना से वह श्रद्धा और सम्मान का पात्र होता है।

लोग उस पर विश्वास करते हैं, यह उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि होती है। हां, सच्चाई की राह कंटकाकीर्ण होती हैं, क्योंकि झूठ का साम्राज्य उसके विस्तार में अवरोध डालने का सतत प्रयास करता है, लेकिन अंत में जीत सत्य की ही होती है। जीवन में उत्थान की घड़ी तब आरंभ होती है, जब सत्य का अवलंबन ग्रहण करने की आकांक्षा प्रबल होती है और उसे अपनी गतिविधियों का आधार बनाकर, सक्रियता धारण करके कार्यक्षेत्र में अग्रसर होते है। कटु, कर्कश, मर्मभेदी, दूसरों को लांछित, तिरस्कृत एवं अपमानित करने वाले और दूसरों के अहित की भावना से भरे संभाषण से सत्य की हत्या होती है।

सत्य को नारायण कहा गया है। सत्यनारायण भगवान की जय बोलने, कथा सुनने, व्रत रखने का अपने यहां चिर प्रचलन है। यह सत्य-नारायण कोई व्यक्ति या देवता नहीं है, वरन सच्चाई को अंत:करण, मस्तिष्क और व्यवहार में प्रतिष्ठापित करने की प्रगाढ़ आस्था ही है। जो सत्य-निष्ठ है, वही सत्य-नारायण भगवान का समीपवर्ती साधक है। जिस सभ्यता, संस्कृति, समाज, अथवा संस्था में अधिक मात्रा में सच्चाई होगी, उतना ही उसका अस्तित्व सुदृढ़ बना रहेगा, उतना ही उसे फलने-फूलने का अवसर मिलेगा, उतना ही उसका सम्मान बढ़ेगा और उतना ही उसका विकास होगा।

सत्य के अभाव में मिथ्या आधार को लेकर कितना ही विशाल कलेवर क्यों न खड़ा कर लिया उसका अस्तित्व क्षणिक होता है। रोज-रोज के झूठ और अर्द्धसत्य से बेशक हमारा उतना अनिष्ट न होता हो, पर एक समय बाद और संकट के समय इनसे बड़ा शत्रु और कोई नहीं। सत्य का वट वृक्ष धीरे-धीरे भले ही बढ़ता और फलता-फूलता हो, मगर जब यह परिपुष्ट हो जाता है तो इसका आयुष्य चिरकाल तक बना रहता है। अक्सर चुनौतियों के समय ही हमारे लिए यथार्थता की आवश्यकता सबसे अधिक होती है। सर्वश्रेष्ठ हमेशा सत्य से पूर्ण होता है, हर समय समान रूप में प्रकट होता है। ईमानदारी, निष्कपटता, नेकी और सात्विक चेतना सत्यनिष्ठा के साथ तय होती है। अर्थात सत्य ही समग्र रूप से जीवन का ध्येय होता है।