Adhik Maas 2020 : श्रीमद् भागवत महापुराण में नौ प्रकार की भक्ति बताई गई है। भक्ति के नौ प्रकारों को ही नवधा भक्ति के नाम से जाना जाता है। कहा जाता है कि इस धरती पर आए सभी मनुष्यों का परम उद्देश्य भगवत प्राप्ति हैं। लेकिन पृथ्वी पर जन्म लेने के बाद मनुष्य भोग और लालच में इतना अधिक लिप्त हो जाता है कि उसे अपना परम उद्देश्य भूल जाता है और वह भौतिक सुखों के पीछे दौड़ने लगता है।

माना जाता है कि जो भी व्यक्ति भगवत दर्शन करना चाहता हो उसे नवधा भक्ति में से किसी एक मार्ग को चुनना चाहिए। श्रीमद्भागवत में लिखा है कि इनमें से किसी एक को चुनने से और उसका नियमित अभ्यास करने से भगवत दर्शन होते हैं।

श्रवणं कीर्तनं विष्णो: स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्।।

कहते हैं कि अधिक मास में नवधा भक्ति में से किसी एक को चुनकर साधन करने से भगवत प्राप्ति का मनोरथ जल्द ही पूरा होता है। नवधा भक्ति में सबसे पहली भक्ति सुनने को माना गया है। इसमें कहा जाता है कि भगवान के चरित्र, लीला, महिमा, नाम और उनके प्रेमियों की बात को श्रद्धा से सुनने से भगवान प्रसन्न होते हैं।

भक्ति का दूसरा रूप कीर्तन को माना गया है। कहते हैं कि कीर्तन करते समय भक्त अपने प्रभु के बहुत निकट पहुंच जाता है। इसलिए यह भक्ति का एक अच्छा रूप माना गया है। देवऋषि नारद, व्यास, वाल्मीकि, शुकदेव और चैतन्य महाप्रभु कीर्तन भक्ति की श्रेणी में आते हैं।

भक्ति के तीसरे रूप का वर्णन करते हुए बताया जाता है कि स्मरण करना भी भक्ति का ही एक रूप है। इसमें भगवान के गुण, रूप, स्वभाव और लीला को याद किया जाता है। कहते हैं कि प्रह्लाद, धुव्र, भरत, भीष्म और गोपियां इसी श्रेणी के भक्तों में शामिल हैं। इन्होंने ईश्वर को याद कर उनकी प्राप्ति की थी।

भक्ति का चौथा रूप पादसेवन यानी चरणों की सेवा है। इसमें भक्त अपने भगवान के चरणों की मानसिक सेवा कर उनको प्रसन्न करने का प्रयास करता है या समस्त जगत को भगवान का रूप मानकर उनके चरणों की सेवा करता है। देवी लक्ष्मी और रुक्मणी ने इसी रूप से भगवान को पाया था।

भगवान की पूजा करना भक्ति का पांचवां रूप माना गया है। इसमें भक्त नित्य ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए धूप और दीप जलाकर उनके रूप का पूजन करता है। माना जाता है कि राजा पृथु और अम्बरीष ने भगवान विष्णु की प्राप्ति भक्ति के पूजन स्वरूप में ही की थी।

वन्दन को भक्ति का ही एक रूप माना गया है। इसमें भक्त अपने भगवान को प्रणाम कर उन्हें प्रसन्न करने की कोशिश करता है। भक्ति के इस रूप में भक्त पूरी दुनिया को भगवान का स्वरूप समझकर भी प्रणाम करता है। अक्रूर जी भगवान का वन्दन भक्त ही माना जाता है।

भक्ति का सातवां रूप दास बनना है। इसमें ईश्वर को अपना स्वामी माना जाता है और भक्त स्वयं पूरे समर्पण भाव के साथ खुद को उनका दास मानता है। हनुमान जी और लक्ष्मण जी को भक्ति के दास स्वरूप का भक्त माना जाता है।

आठवें रूप में भक्त भगवान को अपना सखा यानी मित्र मानता है। इसमें भगवान को दोस्त की तरह हर बात बताना और सुख-दुख में हंसना-रोना आदि शामिल हैं। अर्जुन, उद्धव, सुदामा और श्रीदामा भक्ति के सखा रूप के साधक थे। वह भगवान को अपना परम मित्र मानते थे।

भक्ति का नौवां और अंतिम रूप समर्पण है। इस रूप में भक्त भगवान को अपना सबकुछ अर्पण कर देता है। इसे आत्मनिवेदन भक्ति भी कहा जाता है। कहते हैं कि महाराजा बलि और गोपियों ने भगवान को अपना सबकुछ समर्पण कर भक्ति का आत्मनिवेदन रूप चुना था।