यूपीसीसी के प्रधान रहे अजय कुमार लल्लू के इस्तीफे के बाद कांग्रेस के लिए सूबे का मुखिया तय करना खासा सिरदर्द साबित हो रहा है। प्रियंका की तमाम कोशिशों के बाद भी पार्टी असेंबली चुनाव में महज दो सीट ही जीत सकी। लिहाजा लल्लू से इस्तीफा ले लिया गया। लेकिन अब जिम्मा किसे दिया जाए जो सूबे में फिर से पार्टी में जान फूंक सके। माना जा रहा है कि तमाम कद्दावर नेताओं के पलाय़न के बाद हाईकमान मान रहा है कि जो नेता बचे हैं उनमें किसी 1 पर दांव खेलना समझदारी नहीं होगी। लिहाजा एक टीम को कमान सौंपी जा सकती है।
फिलहाल जो नेता सूबे के प्रधान के रेस में सबसे आगे माने जा रहे हैं, उनमें निर्मल खत्री, पीएल पूनिया, आचार्य प्रमोद कृष्णन और विजेंद्र चौधरी का नाम सबसे आगे है। माना जा रहा है कि 13 मई को राजस्थान में हो रहे चिंतन शिविर से पहले नेतृत्व यूपी की रणनीतिक कमान बनाने का फैसला ले सकता है। इसके लिए मौजूदा ढांचे में पूरी तरह से बदलाव करने की तैयारी चल रही है। सूबे के नेतृत्व की जिम्मेदारी बांटकर वरिष्ठता को ध्यान में रखकर नेतृत्व ये फैसला करने के मूड़ में है। यानि जिसे कमान सौंपी जाए उसे ध्यान रखना होगा कि जो नेता उसके इर्द गिर्द हैं उनका पूरा सम्मान रखा जाए।
एक वरिष्ठ नेता का कहना है कि यूपी में कास्ट फैक्टर बहुत ज्यादा काम करता है। इसी वजह से नेता का नाम तय करने में समय लग रहा है। लेकिन चिंतन शिविर से पहले किसी एक नेता पर सहमति न बनी तो किसी 1 को कार्यकारी अध्यक्ष का जिम्मा सौंपकर पार्टी एक नई शुरुआत कर सकती है। सूबा बड़ा है और अहम भी। 2014 आम चुनाव से पहले राहुल गांधी ने इस बात को समझकर कई नेताओं को जोनल प्रधान बनाकर एक नई शुरुआत की थी। लेकिन उस समय के सीनियर नेता जैसे आरपीएन सिंह, राजा राम पाल, रशीद मसूद, जितिन प्रसाद अब दूसरी पार्टियों में शामिल होकर सत्ता का लुत्फ ले रहे हैं।
फिलहाल पार्टी के पास निर्मल खत्री, पीएल पूनिया, आचार्य प्रमोद कृष्णन और विजेंद्र चौधरी ही बचे हैं जो थोड़ा बहुत प्रभाव रखते हैं। पूनिया दलित नेता होने के साथ नौकरशाह रह चुके हैं। वो संगठन को बखूबी चलाने में सक्षम हैं। अयोध्या के पूर्व सांसद निर्मल खत्री का काडर से सीधा कनेक्शन है तो माना जा रहा है कि विजेंद्र चौधरी ओबीसी वोटर्स को साधने में सक्षम माने जाते हैं।
प्रमोद कृष्णन को कमान सौंपने में सबसे बड़ी बाधा काडर है। वो सपा संस्थापकों के करीब माने जाते हैं। हालांकि वो किसी ब्राह्मण को कमान सौंपने की वकालत कर चुके हैं। 2019 में वो राजनाथ के खिलाफ चुनाव लड़े थे पर हार गए। कुल मिलाकर जिसे जिम्मा दिया जाए उसे सम्मान के साथ अपनी टीम में मौजूद दूसरे नेताओं का साथ भी मिले तो ही यूपी में कांग्रेस फिर से जिंदा हो सकती है। एक नेता का कहना है कि लल्लू मेहनती थे पर उन्हें वो सम्मान नहीं मिल सका।
