पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हाई कोर्ट बैंच की स्थापना का प्रश्न एक बार फिर प्रासंगिक हो गया है। इसी सोमवार को मेघालय के राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने मेरठ को हाई कोर्ट बैंच नहीं दिला पाने के लिए वकीलों से माफी मांगी। मलिक मूल रूप से बागपत जिले (पहले मेरठ का ही भाग) के एक गांव के मूल निवासी हैं। मेरठ कालेज छात्र संघ के अध्यक्ष रहते हुए राजनीति में कूदे थे।
विधायक, केंद्रीय मंत्री और संसद के दोनों सदनों के सदस्य रहे हैं। जम्मू कश्मीर में केंद्र ने अनुच्छेद 370 को उन्हीं के राज्यपाल रहते हटाया था। लेकिन वहां से खुद को हटाए जाने के बाद से वे लगातार केंद्र सरकार के प्रति आक्रामक रहे हैं। मेरठ बार एसोसिएशन ने उन्हें सम्मानित करने के लिए बुलाया था। अपनों के बीच उन्होंने हाई कोर्ट बैंच की मांग को वाजिब बताया। यह भी माना कि 1989 में उन्हीं की चूक से मेरठ में हाई कोर्ट बैंच स्थापित होने से रह गई थी। मलिक तब अलीगढ़ से लोकसभा के सदस्य थे और केंद्र की वीपी सिंह सरकार में मंत्री थे।
उत्तर प्रदेश का हाईकोर्ट प्रयागराज में है। लखनऊ में भी हाईकोर्ट की एक बैंच है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एक और बैंच स्थापित करने की मांग 50 वर्ष पुरानी है। केंद्र सरकार ने वकीलों के लंबे आंदोलन के बाद इस मांग का औचित्य जानने के लिए जसवंत सिंह आयोग बनाया था। लेकिन आयोग की सिफारिश को ठंडे बस्ते में डाल दिया। तब उत्तराखंड राज्य नहीं बना था।
सुदूर पर्वतीय क्षेत्र के लोगों को भी खासी मशक्कत कर इलाहाबाद ही जाना पड़ता था। अटल सरकार ने अलग उत्तराखंड राज्य बनाया तो वहां हाई कोर्ट बैंच की मांग ही खत्म हो गई। अलग राज्य बनने से सूबे को अलग हाई कोर्ट मिल गया। उत्तराखंड का अपना हाईकोर्ट नैनीताल में है। लेकिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोगों की हाई कोर्ट बैंच की मांग अधूरी ही रह गई।
कहा जाता है कि मेरठ में हाई कोर्ट बैंच की स्थापना के औचित्य को मानते हुए भी केंद्र और राज्य कोई भी सरकार इस दिशा में कदम बढ़ाने से कतराती है। लंबे समय तक हाई कोर्ट बैंच की स्थापना के लिए संघर्ष करते रहे और देहरादून से पदयात्रा कर वकीलों के जत्थे के साथ दिल्ली पहुंचकर प्रदर्शन करने वाले मेरठ के वरिष्ठ वकील नरेंद्र पाल सिंह का आरोप है कि पूर्वी उत्तर प्रदेश के वकीलों के दबाव के कारण सरकार पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हाई कोर्ट बैंच स्थापित नहीं कर रही।
यानी जरूरत पर राजनीति हावी हो गई है। अगर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हाई कोर्ट बैंच की स्थापना हो गई तो इलाहाबाद के वकीलों की आमदनी कम हो जाएगी। यह बात अलग है कि सभी राजनीतिक दल और हर सरकार इस मांग का समर्थन करते रहे हैं। बेशक केंद्र इसे राज्य सरकार पर टाल देता है और राज्य सरकार इसे केंद्र का क्षेत्राधिकार बताकर अपने दायित्व से बच निकलने की कोशिश करती है।
हाई कोर्ट की बैंच उत्तर प्रदेश के मुकाबले आबादी और आकार में कहीं छोटे दूसरे राज्यों में कई हैं। मसलन बंबई हाई कोर्ट की दो बैंच औरंगाबाद और नागपुर में तो एक गोवा में है। मध्यप्रदेश का हाई कोर्ट जबलपुर में है तो ग्वालियर और इंदौर में उसकी दो बैंच हैं। राजस्थान का हाई कोर्ट जोधपुर में है तो जयपुर में उसकी एक बैंच भी है।
उत्तर प्रदेश के आकार और जरूरत को देखते हुए यहां तीन और बैंच की आवश्यकता है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोगों को बैंच न होने से प्रयागराज जाना पड़ता है। सीधे रेलवे की सुविधा भी संतोषजनक नहीं है। इस मुद्दे की अनदेखी न ही अस्सी के दशक मेंं राज्य के बंटवारे की मांग को हवा दी थी। उत्तर प्रदेश को तीन राज्यों में बांटने का मुख्यमंत्री रहते मायावती ने तो प्रस्ताव भी विधानसभा से पारित कर दिया था। लेकिन केंद्र ने उस पर तवज्जो नहीं दी।
इसमें दो राय नहीं कि छोटे राज्यों में प्रशासनिक दक्षता और आर्थिक विकास बड़े राज्यों की तुलना में अधिक दिखा है। हरियाणा, छत्तीसगढ़ और झारखंड के उदाहरण सामने हैं। उत्तर प्रदेश देश की कुल आबादी में अकेला ही 20 फीसद की हिस्सेदारी रखता है। सरकार लखनऊ में बैठती है और सारे मंत्री भी। जो राज्य के मध्य में भी नहीं है।
यानी बहुत बड़े इलाके में न विकास की बयार एक समान बह पाती है और न लोगों के दु:ख तकलीफ की सुनवाई ठीक से होती है। एक दौर में उत्तर प्रदेश देश के अग्रणी सूबों में गिना जाता था। लेकिन अब यह भी बीमारू राज्य की हालत में पहुंच चुका है। खासकर औद्योगिक विकास की तरफ समुचित ध्यान दिया ही नहीं जा रहा।
कभी कानपुर, अलीगढ, मुरादाबाद और गाजियाबाद बड़े औद्योगिक क्षेत्र थे। बाद में नोएडा विकसित हुआ तो बेहतर औद्योगिक विकास की उम्मीद जगी। लेकिन आपराधिक गतिविधियों और राजनीतिक व प्रशासनिक लालफीताशाही ने सारी उम्मीदों पर पानी फेर दिया। नोएडा के काफी बाद विकसित हुआ गुरुग्राम आज उसी का परिणाम है कि वहां अनेक बहुराष्ट्रीय कंपनियों के ठिकाने हैं।
उत्तर प्रदेश के बंटवारे के आंदोलन से ही इंद्रप्रस्थ राज्य और हरित प्रदेश जैसे नारे सामने आए। हरित प्रदेश अजित सिंह का सपना था, जिसे वे परवान नहीं चढ़ा पाए। पश्चिमी उत्तर प्रदेश का सूबे के राजस्व में जितना योगदान है, इस इलाके के विकास पर लखनऊ में बैठी किसी सरकार ने उस अनुपात में कभी ध्यान नहीं दिया। कुछ लोग चाहते हैं कि दिल्ली के नजदीक होने के कारण राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के इलाकों को दिल्ली राज्य में ही शामिल कर दिया जाए तो कुछ पश्चिमी उत्तर प्रदेश को अलग राज्य बनाए जाने के पक्षधर हैं।
उत्तर प्रदेश बार काउंसिल के अध्यक्ष रहे रोहिताश्व कुमार अग्रवाल की दलील है कि अब मेरठ में हाई कोर्ट बैंच की स्थापना के बजाए पश्चिमी उत्तर प्रदेश को अलग राज्य बनाया जाना ज्यादा समीचीन होगा। फिर तो उत्तराखंड की तरह नए बने राज्य का अपना अलग हाई कोर्ट होगा, इलाहाबाद हाई कोर्ट की बैंच स्थापित करने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी।