समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव इन दिनों सियासी संकट का सामना कर रहे हैं। विधानसभा चुनाव में सत्ता हासिल करने का मंसूबा तो अधूरा रह ही गया, उसके बाद हुए विधान परिषद चुनाव में तो पार्टी का खाता भी नहीं खुल पाया। यह चुनाव स्थानीय निकायों के निर्वाचित प्रतिनिधियों के मतदान पर आधारित था। इस झटके को भी अखिलेश यह कहकर हजम कर गए कि सत्तारूढ़ पार्टी ने सत्ता और धन बल का उपयोग कर एक तरह से चुनाव जीत लिया। एक और झटका उनके चाचा शिवपाल यादव उन्हें देने को तैयार बैठे हैं।

पर चाचा के पाला बदल से वे उतने चिंतित नहीं दिखते, जितने पार्टी के मुसलमान नेताओं की बगावत से। खासकर सबसे कद्दावर मुसलिम नेता आजम खान की नाराजगी ने बेशक उनकी बेचैनी बढ़ाई होगी। आजम खान की पार्टी नेतृत्व से नाराजगी की खबरों को पिछले हफ्ते की कुछ घटनाओं से भी हवा मिली है। शिवपाल यादव सीतापुर जेल जाकर आजम खान से मिले और बयान दिया कि सपा ने उनके लिए संघर्ष नहीं किया।

इसके बाद उनसे मुलाकात के लिए लखनऊ के सपा विधायक और अखिलेश के खास रविदास मेहरोत्रा भी सीतापुर जेल पहुंचे। लेकिन आजम खान ने जेल अधिकारियों से कह दिया कि वे मेहरोत्रा से नहीं मिलना चाहते। बेचारे मेहरोत्रा आजम खान के पक्ष में बयान देकर लौट आए। लेकिन दो दिन बाद ही कांगे्रस के नेता आचार्य प्रमोद कृष्णन उनसे मिलने जेल पहुंचे तो वे उनसे मिले और उनकी दी गीता बतौर भेंट स्वीकार भी की। इन घटनाओं का असर भी हुआ है और चर्चा है कि समाजवादी पार्टी अब खुलकर आजम खान की पैरवी करेगी।

उधर, भाजपा अपनी सफलता से उतनी संतुष्ट नहीं है, जितनी बेचैनी उसे मुसलमान मतदाताओं के समाजवादी पार्टी के पक्ष में ध्रुवीकरण से हुई है। याद कीजिए 2014 के लोकसभा चुनाव को। सपा, कांगे्रस और रालोद का इस चुनाव में समझौता था। इन तीनों दलों के अलावा बसपा ने भी मुसलमान उम्मीदवार उतारे थे। लेकिन सूबे की अस्सी में से एक भी सीट पर कोई मुसलमान उम्मीदवार नहीं जीत पाया था। आजादी के बाद पहली बार ऐसा चुनाव परिणाम दिखाई दिया था जब देश के सबसे ज्यादा मुसलमान आबादी वाले और सबसे बड़े सूबे से लोकसभा में कोई भी मुसलमान चुनकर नहीं पहुंचा था। लेकिन 2019 में सपा, बसपा और रालोद मिलकर लड़े तो छह मुसलमान लोकसभा चुनाव जीते थे। तीन सपा के और तीन बसपा के।

अब जरा विधानसभा चुनाव के नतीजों का विश्लेषण कर लें। आजादी के बाद सबसे ज्यादा 69 मुसलमान विधायक 2012 में जीते थे और इसी चुनाव में समाजवादी पार्टी बहुमत के साथ सत्ता में आई थी। लेकिन 2017 में जब भाजपा तीन चौथाई बहुमत के साथ पहली बार सत्ता में आई तो मुसलमान विधायकों की संख्या घटकर 25 रह गई। सबसे कम 17 मुसलमान विधायक भी 1991 में ही जीते थे जब भाजपा ने राम मंदिर के मुद्दे पर सूबे की सत्ता पाई थी। पर 2022 के विधानसभा चुनाव में मुसलमान विधायक 36 जीत गए। भाजपा के लिए यह आंकड़ा ही असली चिंता का विषय है।

अखिलेश यादव के 64 मुसलमान उम्मीदवारों की तुलना में मायावती ने 88 और असद्दुदीन ओवैसी ने भी 80 से ज्यादा मुसलमानों को टिकट दिए थे। कमी कांगे्रस ने भी नहीं छोड़ी थी। पर न बसपा और ओवैसी का एक भी मुसलमान विजयी हुआ और न कांगे्रस का। जो मुसलमान विधायक चुने गए उनमें 33 सपा, दो रालोद और एक ओमप्रकाश राजभर की पार्टी यानी सारे सपा गठबंधन के ही हैं। यह साफ संकेत है कि सूबे में मुसलमान वोट ज्यादा विभाजित नहीं हुए और उनकी पहली पसंद समाजवादी पार्टी बनी।

लेकिन यही मुसलमान अब अगर अखिलेश यादव के खिलाफ बगावत कर रहे हैं तो इसके पीछे भाजपा की भूमिका को भी नकारा नहीं जा सकता। चुनाव के दौरान खुद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने ही बयान दिया था कि अखिलेश यादव नहीं चाहते कि आजम खान जेल से बाहर आएं। आजम खान पर भाजपा सरकार ने कई आपराधिक मुकदमे दर्ज कर उन्हें दो साल से जेल में डाल रखा है। सपा के एक मुसलमान नेता सलमान जावेद राईन ने इससे पहले अपना इस्तीफा बागी तेवर के साथ ही दिया था। अपने पत्र में इस नेता ने लिखा था कि मुसलमानों के साथ हो रहे जुल्म के खिलाफ प्रदेश से लेकर जिले तक सत्ता की मलाई खाने वाले सपा नेता व पदाधिकारी आवाज नहीं उठा रहे।

मुसलमान वोट किसी मुसलिम पार्टी के पक्ष में लामबंद हों या कई पार्टियों में बंटे तो भाजपा का फायदा है। पर उनका किसी एक गैर मुसलिम पार्टी के पक्ष में लामबंद होना भाजपा के लिए भी चुनौती पैदा कर सकता है। भाजपा के इस दांव को अखिलेश समझ रहे हैं। तभी तो उन्होंने लोकसभा से इस्तीफा दिया है और सूबे की सियासत तक ही खुद को सीमित रखने का फैसला किया है। पर वे अपने सियासी कौशल से अपने मुसलमान नेताओं और विधायकों को संतुष्ट रख पाएंगे, सूबे में भाजपा के मुकाबले तभी टिके रह पाएंगे।