उत्तर प्रदेश के बंटवारे को लेकर जून के पहले हफ्ते में सोशल मीडिया पर जो खबर अचानक चर्चा का विषय बन गई थी, उस पर फिलहाल विराम लग गया है। केंद्र की तरफ से पे्रस सूचना ब्यूरो और उत्तर प्रदेश की तरफ से सरकार के प्रवक्ता मंत्री सिद्धार्थ नाथ सिंह ने इस खबर को बेशक अफवाह बताने में कई दिन लगाए। जिससे इन अटकलों को बल मिला कि यह खबर जानबूझकर फैलाई गई थी। लेकिन बंटबारे को लेकर राज्य मे दो पक्ष बन गए। एक इसे जरूरी बता रहा है कि छोटे सूबे से शासन चलाना आसान होता है और अभी की स्थिति में सभी की आकांक्षा पूरी नहीं की जा सकती।
वैसे तो केंद्र को किसी भी राज्य का बंटवारा करने का संवैधानिक अधिकार है। आंध्रप्रदेश का बंटवारा कर 2013 में जब केंद्र की यूपीए सरकार ने तेलंगाना को अलग राज्य बनाया था तो लोगों ने केंद्र के अधिकार क्षेत्र को देख समझ लिया था।

उत्तर प्रदेश का बंटवारा होने की सोशल मीडिया की खबर से प्रदेश के लोगों में अमूमन खुशी ही दिखी थी। आखिर 23 करोड़ की आबादी वाला देश का सबसे बड़ा सूबा अगर आर्थिक विकास की दौड़ में आजादी के बाद लगातार पिछड़ता गया है तो इसकी वजह सूबे की बड़ी आबादी होना भी है। क्षे़त्रफल के मामले में तो राजस्थान, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र से भी यह सूबा पीछे है। पर लोकसभा की सीटों के नजरिए से तुलना करें तो राजस्थान की 25, मध्यप्रदेश की 28 और महाराष्ट्र की 48 सीटों के मुकाबले उत्तराखंड अलग राज्य बन जाने के बाद भी उत्तर प्रदेश में 80 सीटें हैं।

भाजपा छोटे राज्यों की हिमायती रही हैै। उसकी मान्यता है कि छोटे राज्यों का प्रशासन कुशलतापूर्वक चलाया जा सकता है। जिससे हर क्षेत्र में विकास तो बेहतर होता ही है, लोगों की आकांक्षाओं और अपेक्षाओं को पूरा करना भी संभव हो पाता है। उत्तराखंड, छत्तीसगढ़ और झारखंड तीनों राज्य केंद्र की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने ही तो बनाए थे। भाजपा तो अलग विदर्भ राज्य की मांग का भी जनसंघ के जमाने से समर्थन करती रही है। पर उत्तर प्रदेश को लेकर वह मौन है।

उत्तर प्रदेश को चार राज्यों में बांटने का प्रस्ताव राज्य की विधानसभा भी पारित कर चुकी हैै। नवंबर 2011 में मायावती की सरकार ने उत्तर प्रदेश को पूर्वांचल, अवध, बुंदेलखंड और पश्चिमी प्रदेश में बांटने का प्रस्ताव केंद्र सरकार को भेजा था। लेकिन 2012 के विधानसभा चुनाव में मायावती की हार के साथ ही यह प्रस्ताव भी ठंडे बस्ते में चला गया।

वैसे उत्तर प्रदेश के बंटवारे को लेकर केंद्र को गंभीर रुख दिखाना चाहिए। इतने बड़े प्रदेश की समस्याएं भी बड़ी हैं। अलग-अलग अंचलों में रीति रिवाज, भाषा और संस्कृति भी भिन्न हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश को अलग राज्य बनाने की मांग भी पुरानी है। बीच में अजित सिंह ने भी अलग हरित प्रदेश का राग अलापना शुरू किया था। पर वे इसके लिए कोई जन आंदोलन खड़ा नहीं कर पाए।

उत्तर प्रदेश बार काउंसिल के अध्यक्ष रोहिताश्व कुमार अग्रवाल कहते हैं कि उत्तर प्रदेश में सरकार किसी की रही हो पर पश्चिमी क्षेत्र के साथ तो नाइंसाफी ही हुई है। और तो और इलाहबाद हाईकोर्ट की एक पीठ तक सरकार ने इस इलाके को नहीं दी। इतने बड़े प्रदेश का एक ही हाई कोर्ट है और वह भी राज्य के एक किनारे पर इलाहबाद में। उसकी एक पीठ है भी तो वह भी लखनऊ में। पश्चिमी क्षेत्र के लोगों को न्याय के लिए पापड़ बेलने पड़ते हैं। अच्छा हुआ कि उत्तराखंड अलग राज्य बन गया। अब उसका अपना अलग हाईकोर्ट है।

उत्तर प्रदेश की तुलना में महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश छोटे हैं। फिर भी महाराष्ट्र का हाई कोर्ट मुंबई में है तो उसके दो पीठ औरंगाबाद और नागपुर में हैं। मध्यप्रदेश हाई कोर्ट जबलपुर में है पर भोपाल और इंदौर में उसके दो पीठ हैं। इस नाते पश्चिमी उत्तर प्रदेश को अगर अलग राज्य बनाने में अड़चन है तो यहां हाई कोर्ट का पीठ देने से सरकार को कौन रोकता है। केंद्र सरकार का बनाया जसवंत सिंह आयोग तीन दशक पहले ही इसकी सिफारिश कर चुका है।

उत्तर प्रदेश के बंटवारे के हिमायती रहे पूर्व सांसद हरपाल पंवार पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एनसीआर में शामिल इलाकों को दिल्ली में शामिल कर दिल्ली को इंद्रप्रस्थ राज्य घोषित करने के लिए वर्षों तक आंदोलन करते रहे पर किसी के कानों पर जूं नहीं रेंगी। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोग जब हरियाणा से अपनी तुलना करते हैं तो उन्हें ईर्ष्या होती है। काश पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग व सिलीगुड़ी जैसे उत्तरी इलाकों को अलग केंद्र शासित प्रदेश बनाने की योजना पर चिंतन करने वाली केंद्र सरकार देश के सबसे बड़े प्रदेश का बंटवारा करने की पिछले हफ्ते सोशल मीडिया पर उड़ी खबर को अमली जामा पहनाने की दिशा में आगे बढ़ती तो न्यायोेचित होता।