देश भर में पानी को लेकर हाहाकार है। विशेषज्ञों का कहना है कि सागर और बूंदें अलग हो जाएं तो न सागर बचा रहेगा और न बूंद बचेगी और देश में भीषण सूखे की यह एक बड़ी वजह है। हमारे देश में लाखों की तादाद में तालाब थे, कुएं थे लेकिन हमने उन्हें रहने नहीं दिया, परिणाम हमारे सामने है। महाराष्ट्र, कर्नाटक, छत्तीसगढ़, राजस्थान, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना समेत नौ राज्यों में सूखे और पेयजल की कमी के कारण लोगों के पलायन से समस्या न सिर्फ गंभीर चिंता का विषय बन गई है, बल्कि इस समस्या से निपटने के लिए सार्थक प्रयास के सरकारी दावे नाकाफी हो गए हैं। तालाब, कुओं जैसे पारपरिक स्रोतों को जीवंत बनाने और भूजल संरक्षण की जरूरत पहले से कहीं अधिक हो गई है।
सूखे और जल संकट पर शीर्ष अदालत ने बड़े ही तल्ख लहजे में कहा है कि देश के नौ राज्य सूखाग्रस्त हैं और सरकार इस पर आंखें बंद नहीं कर सकती। यह बुनियादी जरूरतों में से एक है और सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि वह प्रभावित लोगों को इस समस्या से निजात दिलाए।
जाने माने पर्यावरणविद अनुपम मिश्र ने कहा कि पानी का प्रबंधन, उसकी चिंता हमारे समाज के कर्तव्य बोध के लिए विशाल सागर की एक बूंद के समान रहीं। सागर और बूंद एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। पर बूंदें अलग हो जाएं तो न सागर बचा रहेगा और न बूंद बचेगी। देश में भीषण सूखे के बीच पानी और पेयजल की समस्या इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। हमारे देश में लाखों की तादाद में तालाब थे, कुएं थे लेकिन हमने उन्हें रहने नहीं दिया, परिणाम हमारे सामने है।
पूर्ववर्ती योजना आयोग की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश का 29 फीसदी इलाका पानी की समस्या से जूझ रहा है। वह भले ही जल संकट की सारी जिम्मेदारी कृषि क्षेत्र पर डाले, लेकिन हकीकत यह है कि जल संकट गहराने में उद्योगों की अहम भूमिका है। असल में फैक्टरियां ही अधिकाधिक पानी पी रही हैं। कई बार फैक्टरियां एक ही बार में उतना पानी जमीन से खींच लेती हैं, जितना एक गांव पूरे महीने में भी नहीं खींचता।
मिश्र के अनुसार, सन 1800 में मैसूर राज को दीवान पूर्णाया देखते थे। तब राज्य भर में 39000 तालाब थे। कहा जाता था कि वहां किसी पहाड़ी की चोटी पर एक बूंद गिरे, आधी इस तरफ आधी उस तरफ बहे तो दोनों तरफ इसे सहेज कर रखने वाले तालाब वहां मौजूद थे लेकिन इसी मैसूर के 39000 तालाबों की दुर्दशा का किस्सा बहुत लंबा है। उनकी पुस्तक ‘आज भी खरे हैं तालाब’ में कहा गया है कि दिल्ली में भी तालाबों की दुर्दशा की अलग ही कहानी है, जहां अंग्रेजों के आने से पहले तक 350 तालाब थे। इन्हें भी राजस्व के लाभ हानि के तराजू पर तौला गया और आज देश की राजधानी में पानी का संकट किसी से छिपा नहीं है ।
इसमें कहा गया है कि शहरीकरण के शुरूआती दौर में 1970 के बाद यह डरावने सपने में बदलने लगी। तब तक कई शहरों के तालाब उपेक्षा की गाद से पट चुके थे और उन पर नए मोहल्ले, बाजार स्टेडियम खड़े हो चुके थे। पर पानी अपना रास्ता नहीं भूलता। तालाब हथिया कर बनाए गए नए मोहल्लों में वर्षा के दिनों में पानी भर जाता है और फिर वर्षा बीती नहीं कि इन शहरों में जल संकट के बादल छाने लगते हैं।
भारतीय किसान यूनियन के शिवनारायण परिहार ने कहा कि बुंदेलखंड पांच नदियों का क्षेत्र रहा है जिसे पंचनद के नाम से जाना जाता है। इस क्षेत्र में कई छोटी नदियां और काफी संख्या में पोखर थे लेकिन अवैध बालू खनन के कारण छोटी नदियों की एक तरह से हत्या कर दी गई और भू माफिया ने पोखरों को भर कर इमारतें खड़ी कर दी है। ऐसे में लोगों को खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। उन्होंने कहा कि महाराष्ट्र के लातूर एवं मराठवाड़ा क्षेत्र में भूजल स्तर के काफी नीचे होने की अंग्रेजों के समय से ही जानकारी है लेकिन इसके बावजूद क्षेत्र में चीनी मिलों समेत कई कारखाने खड़े किए गए और लोगों को पेयजल के संकट का सामना करना पड़ रहा है। कुंओं, तालाबों की व्यवस्था पर कोई ध्यान नहीं दिया गया।
जल क्षेत्र से जुड़ी संस्था सहस्त्रधारा की रिपोर्ट में कहा गया है कि कई जगहों पर भूजल का इस कदर दोहन किया गया कि वहां आर्सेनिक और नमक तक निकल आया है। इसमें कहा गया है कि तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, पंजाब और बिहार में भी यह समस्या गंभीर है। परंपरागत कुएं और ट्यूबवेल में भूजल का स्तर काफी नीचे खिसक रहा है। तालाब बर्बाद हो रहे हैं और इन्हें अवैध रूप से खत्म किया जा रहा है।
बुंदेलखंड विकास मोर्चा के आशीष सागर ने कहा कि भू-जल पानी का महत्वपूर्ण स्रोत है और पृथ्वी पर होने वाली जलापूर्ति अधिकतर भू-जल पर ही निर्भर है, लेकिन आज इसका इतना दोहन हुआ है कि पूछो मत। उन्होंने कहा कि हमारे देश के 55 से 60 फीसदी लोगों को पानी की आवश्यकता की पूर्ति भूजल द्वारा होती है, लेकिन अब भूजल की उपलब्धता को लेकर भारी कमी महसूस की जा रही है। पूरे देश में भूजल का स्तर हर साल नीचे सरकता जा रहा है जो देश के लिए गंभीर चुनौती है।
पर्यावरणविदों का कहना है कि हमारे गांवों में तालाब, पोखर आज भी हैं। दिल्ली जैसे शहर में सैकड़ों तालाब थे। उनमें पानी जमा होता था और वहां से धीरे-धीरे रिस-रिस कर भूजल के स्तर को बनाए रखता था। हमने विकास की अंधी दौड़ में पोखरों को नष्ट कर मकान बना दिए, उद्योग लगा दिए। दूसरी ओर भूजल का लगातार दोहन करते रहे। नतीजा आज हमारे सामने है।