पुरातत्व ऐतिहासिक धरोहर विक्रमशिला को संवारने, इसके गौरव को लौटाने और उत्थान के लिए जितना शोर मच रहा है वैसा कुछ यहां दिख नहीं रहा। अंतीचक गांव में ही विक्रमशिला के अवशेष सौ एकड़ में बिखरे पड़े हैं। पौराणिक पर्यटक स्थल विक्रमशिला में सन्नाटा पसरा रहता है। यहां ज्यादा पर्यटक इसलिए भी नहीं पहुंचते क्योंकि भागलपुर से पहुंच मार्ग बदहाल है और पर्यटन स्थल में बुनियादी सुविधाएं ही नहीं हैं। इसकी बानगी दिखाई दी रामपुर स्कूल से कुछ बच्चों और उनके चार शिक्षकों की बेचैनी से। इन बच्चों को मुख्यमंत्री पर्यटक योजना के तहत भ्रमण कराने स्कूल की तरफ से लाया गया था। गर्मी में पीने के पानी और एक अदद शौचालय के लिए ये परेशान हो गए। चिलचिलाती धूप में कहीं कोई छांव के लिए शेड तक नहीं था। कक्षा पांच की मंजू, सुनीता और सरिता ने बताया कि कहीं कोई इंतजाम नहीं है। आखिर में कोई सैलानी आए भी तो कैसे? यहां सुरक्षा का कहीं पुख्ता इंतजाम नहीं दिखा। एक निजी गार्ड है जो सिर्फ पुरातत्व धरोहर की हिफाजत के लिए तैनात है। विक्रमशिला स्थल 1972 की खुदाई से मिला। यहां खुदाई का काम पुरातत्व विभाग ने शुरू किया था। 1982 के बाद से खुदाई का काम रुका पड़ा है। स्थानीय लोगों का कहना है कि विक्रमशिला के उत्थान के लिए कुछ नहीं हो रहा है। सिर्फ बातें हो रही हैं। यहां हुई खुदाई में निकले बुद्ध, तारा, नवग्रह जैसी पाषाणकाल की मूर्तियां व वस्तुएं संग्रहालय में रखी हैं। यह संग्रहालय 2004 में बना। बताते हैं कि यहां खुदाई में निकली कई पुरातत्व वस्तुएं व मूर्तियां नालंदा ले जाई गई हैं। इसे वापस मंगाने की भी मांग हो रही है। नालंदा विश्वविद्यालय को तो विकसित कर दिया गया लेकिन विक्रमशिला आज भी अपने उत्थान की बाट जोह रहा है।
बीते साल अप्रैल में राष्ट्रपति की हैसियत से प्रणब मुखर्जी आए थे। उनके साथ तब रामनाथ कोविंद भी थे। वे तब बिहार के राज्यपाल थे। इससे पहले मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उनके मंत्री भी आ चुके हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2015 में कहलगांव के विक्रमशिला के बगल में केंद्रीय विश्वविद्यालय बनाने की घोषणा की। इसके लिए 500 करोड़ रुपए आबंटित करने की बात कही। शर्त यह रखी कि बिहार सरकार केंद्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए 500 एकड़ जमीन अपने खर्च पर मुहैया कराए। बस इसी पेच में तीन साल से यह मामला अटका पड़ा है। इस बीच इसके लिए कहलगांव के लोगों ने आंदोलन, प्रदर्शन, धरना, बेमियादी अनशन किया। पर सब बेअसर साबित हुआ। बिहार सरकार 500 एकड़ जमीन देने के मूड में नहीं है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का मानना है कि 200 एकड़ जमीन भी काफी है।
इतिहासकारों के मुताबिक विक्रमशिला की स्थापना आठवीं सदी के अंत या नौवीं सदी के प्रारंभ में पाल नरेश धर्मपाल ने की थी। लगभग 400 साल के वैभवकाल के बाद तेहरवीं सदी की शुरुआत में इसका विध्वंस हो गया। सोलहवीं-सतरहवीं सदी के तिब्बती ख्यातिलब्ध इतिहासकार लामा तारानाथ ने विक्रमशिला के बारे में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण जानकारी दी है। प्राचीनकाल में इसे राजकीय विश्वविद्यालय के रूप में जाना जाता था। उत्खनन में निकली कुछ मुहरों पर राजगृह महाविहार लिखा मिला है। तिब्बत में इसे विक्रमशिला महाविद्यालय के नाम से जानते थे। अपने युग के यह विशालतम विश्वविद्यालयों में से एक था। इसका दो अन्य प्राचीन विश्वविद्यालय नालंदा और औदन्तपुरी से भी घनिष्ठ संबंध था।
उत्खनन में निकली बनावट बताती है कि यहां एक समय सौ से ज्यादा शिक्षक और एक हजार से अधिक विद्यार्थी रहते थे। छात्रावासनुमा कमरे के अवशेष आज भी यहां मौजूद हैं। इसे रत्नाकार, रत्नवज, नेतारी, ज्ञान, श्रीमित्र, रत्नकीर्ति , शांति सरीखे अनेक यशस्वी विद्धान पैदा करने का श्रेय हासिल है। जिनमें तिब्बत के लामा संप्रदाय के संस्थापक आतिश दीपंकर का नाम प्रमुख है। यहां सभी विषयों की पढ़ाई होती थी। मगर तंत्र विद्या मुख्य थी। यहां बाकायदा प्रबंध समिति थी जो नालंदा को भी नियंत्रित करती थी। यहां पुरातात्विक उत्खनन पहले पटना विश्वविद्यालय ने 1960-69 के बीच कराया। इसके बाद भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण का उत्खनन 1972-1982 तक चला। इस दौरान एक विशाल वर्गाकार विहार निकला। केंद्र में क्रॉस के आकार का स्तूप , एक ग्रंथकार तथा मनौती स्तूप के समूह के भग्नावशेष मिले। इसके उत्तर में एक तिब्बती और हिंदू मंदिर सहित अनेकों भवनों के अवशेष मिले। स्थापत्य शिलाखंड, बौद्ध व हिंदू धर्म से जुड़ी अनेक मूर्तियां, अभिलेख , मृण्मय फलक, सोने, चांदी, कांसे, लोहे, पत्थर, हाथी दांत बगैरह पुरावशेष प्राप्त हुए। जो पालयुगीन इतिहास का पुख्ता सबूत है।