पिछले कुछ दिनों से पवन कुमार कनौजिया अखबारों में बोर्ड परीक्षाओं में टॉप करने वाले बच्चों के मां-बाप की खुशी से भरी तस्वीरें देखते थे। शनिवार को जब उनका रिजल्ट आया तो उन्होंने राहत की सांस ली, उन्हें गैर मेडिकल वर्ग में 83.6 प्रतिशत अंक मिले हैं। एक क्षण के लिए पवन दुखी हुए, लेकिन अगले ही पल उनके चेहरे पर मुस्कान तैर गई।
17 वर्षीय पवन के पिता डुगरी के जनता एंक्लेव में ठेला लगाकर कपड़े प्रेस करते हैं। गणित का पेपर जोकि बहुत कठिन माना जाता है, उसमें पवन ने 95 प्रतिशत अंक हासिल किए हैं। पवन कहते हैं, “कौन कहता है कि मैं टॉपर नहीं हूं? मैं टॉपर हूं। अब मुझे जिंदगी में कुछ बनना है ताकि मेरी फीस भरने के लिए मेरे पिता को किसी और के कपड़े ना प्रेस करने पड़ें।”
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अपने पिता के संघर्ष के बारे में बताते-बताते पवन की आंखें नम हो जाती हैं। वे कहते हैं, “मैंने भी सोचा था कि आजकल उनके बारे में कौन सोचता है जो 90 प्रतिशत से कम नंबर पाते हैं। यहां तक कि 95 प्रतिशत को भी कम समझा जाता है। टॉपर के अलावा और कोई खबरों में नहीं आ पाता। लेकिन 83.6 प्रतिशत का एक-एक अंक मेरे पिता को समर्पित है। मैं आठवीं तक एक सरकारी स्कूल में पढ़ता था लेकिन मेरी लगन देखकर उन्होंने मुझे एक सीबीएसई स्कूल में भेजा। मेरे टीचर्स ने भी मेरी खूब मदद की। मेरी फीस का कुछ हिस्सा माफ कर दिया गया। मेरा लक्ष्य निर्धारित है। मैं सिविल इंजीनियरिंग में भविष्य बनाना चाहता हूं।”
दूसरी तरफ 18 साल के विवेक सिंह हैं, वे अनाथ हैं। उनकी मां 6 साल पहले गुजर गई थीं और पिता पिछले साल एक रेल हादसे में चल बसे। खुद के साथ-साथ 15 साल की बहन की जिम्मेदारी भी विवेक के कंधों पर आ गई। विवेक ने व्यावसायिक शिक्षा (टेक्सटाइल डिजाइन और प्रिंटिंग) में 77 प्रतिशत अंकों के साथ 12वीं पास किया है।
विवेक कहते हैं, “एक टॉपर होना मेरे लिए मायने नहीं रखता। मैं दोराहा में एक मेडिकल स्टोर पर काम करके 3,000 रुपए कमाता हूं। बहन की पढ़ाई के लिए 300 रुपए फीस देता हूं और बाकी घर में खर्च हो जाता है। लोगों ने मुझे सलाह दी है कि मैं पढ़ाई छोड़ दूं और बहन के लिए काम करना शुरू कर दूं, लेकिन मैं आगे पढ़ना चाहता हूं। समाज में एक अनपढ़ की कोई इज्जत नहीं है। मैं टेक्सटाइल डाइंग में डिप्लोमा करूंगा। मैं नहीं चाहता कि मेरी बहन का मन पढ़ाई से भटके।”

