पश्चिम बंगाल में अल्पसंख्यकों की सियासी भूमिका हमेशा अहम रही है और अबकी लोकसभा चुनाव भी इसका अपवाद नहीं हैं। बंगाल में इस तबके की आबादी लगभग 30 फीसद है। पहले पहले माकपा की अगुवाई वाले वाममोर्चा को तीन दशकों तक इस तबके का समर्थन मिलता रहा। लेकिन उससे मोहभंग होने के बाद इन वोटरों ने ममता बनर्जी की अगुआई वाली तृणमूल कांग्रेस की झोली भरते हुए उसे राज्य की सत्ता सौंप दी। मुसलिम वोटों की अहमियत समझते हुए ही चुनावों के मौके पर तमाम प्रमुख राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों ने इस वोट बैंक को लुभाने की कवायद शुरू कर दी है। राज्य के खासकर बांग्लादेश से लगे इलाकों में तो मुसलिम वोट ही किसी उम्मीदवार की हार-जीत में निर्णायक हैं। लोकसभा की 42 में से 15-16 से ज्यादा सीटों पर यह तबका उम्मीदवारों की किस्मत का फैसला करने में सक्षम है। इस तबके का कहना है कि चुनावों के समय तमाम दलों के नेता वादे तो बहुत करते हैं, लेकिन चुनाव बीतते ही तमाम वादे हवाई साबित हो जाते हैं।
अबकी राज्य में राजनीतिक समीकरण पिछली बार के मुकाबले बदल गए हैं। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों में जहां तृणमूल कांग्रेस का मुकाबला वाममोर्चा और कांग्रेस से था, वहीं अबकी इन दोनों को पीछे धकेल कर भाजपा प्रमुख विपक्षी पार्टी के तौर पर उभरी है। लेकिन कांग्रेस और वाममोर्चा में गठजोड़ नहीं हो पाने से सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस से कुछ नाराजगी के बावजूद भाजपा को रोकने के लिए अल्पसंख्यक तबका इस बार भी तृणमूल का ही समर्थन करने का मन बना रहा है। आल बंगाल माइनरिटी यूथ फेडरेशन के महासचिव मोहम्मद कमरुजज्मान कहते हैं कि अल्पसंख्यकों में विभिन्न मुद्दों पर सरकार के प्रति नाराजगी जरूर है। लेकिन भाजपा की बढ़त रोकने के लिए इस तबके के लोग एक बार फिर तृणमूल का ही समर्थन करेंगे। इमाम काजी फजलुर रहमान कहते हैं कि अल्पसंख्यकों से सबसे मजबूत धर्मनिरपेक्ष ताकतों का समर्थन करने की अपील कर रहे हैं।
बीते चार-पांच वर्षों के दौरान राज्य में बढ़ती सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं से इस तबके में राज्य सरकार के प्रति भारी नाराजगी भी है। लेकिन तृणमूल इसके लिए भाजपा को जिम्मेदार ठहरा कर अल्पसंख्यक तबके की नाराजगी पर मरहम लगाने का प्रयास कर रही है। दूसरी ओर, भाजपा तृणमूल प्रमुख ममता बनर्जी पर अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण के आरोप लगाती रही है। बंगाल की सियासत में अल्पसंख्यकों की अहमियत और उनके समर्थन के कारण वाममोर्चा को वर्ष 1996 और 2004 के लोकसभा चुनावों में लोकसभा की क्रमश: 33 और 34 सीटें मिली थीं। लेकिन सच्चर समिति की रिपोर्ट में राज्य के अल्पसंख्यकों की बदहाली का खुलासा होने के बाद इस तबके का वाममोर्चा से मोहभंग शुरू हुआ। उसके बाद यह तबका ममता बनर्जी व तृणमूल कांग्रेस की ओर झुकने लगा। प्रदेश भाजपा अध्यक्ष दिलीप घोष का दावा है कि एक खास तबके के प्रति सरकार के झुकाव से बहुसंख्यकों में भारी नाराजगी है। यह तबका अपने हितों की रक्षा के लिए भाजपा की ओर देख रहा है।
UP: Due to Dalit-Muslim solidarity, hindsight
Haryana: Lok Sabha elections will decide the future of MLAs!

