सुभाष मेहरा

हिमाचल प्रदेश में दान के रथ पर मुख्यमंत्री पद की सवारी कर रहे जयराम ठाकुर और उनके सूबेदारों के मंसूबे विधानसभा चुनाव में अपनी ही पार्टी के नेता एवं पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल को नजरअंदाज करके प्रदेश की सल्तनत पर दोबारा काबिज होने के हैं, लेकिन क्षेत्रीय राजनीति के लिहाज से सत्ता में संतुलन साधने वाले कांगड़ा जिले में किसी कबीले के सरदारों की तरह विखंडित भाजपाई नेताओं के बीच आपस मेंं सिर-धड़ की बाजी का खेल चल रहा है। स्पष्ट है कि यह खेल इस जीत में खूब खलल डालेगा।

नूरपुर, पालमपुर, देहरा और कांगड़ा समेत चार संगठन जिलों में विभाजित इस क्षेत्र के 15 हलकों में सुलाह, बैजनाथ और नगरोटा बगवां को छोड़ बाकी के तमाम हलकों में पार्टी टकराव की चपेट में है। लिहाजा कहा जा रहा है कि धूमल को किनारे करके फिर से सिंहासन पर कब्जे की नीति जयराम के लिए नुकसानदायक न साबित हो जाए।

भाजपा के एक बड़े तबके पर अभी भी एक छत्र राज करने वाले धूमल को वैसे भी इस बार ‘सरकार नहीं रिवाज बदलेंगे’ के नारे के जनक जयराम और उनके मनसबदारों ने सरकार के गठन के बाद से ही अपने हाल पर छोड़ रखा है। इस तरह के हालात के बीच ‘मिशन रिपीट’ के लिए मचल रहे जयराम जानते हैं कि केंद्रीय सत्ता के अनजाने खौफ के बीच हमीरपुर दरबार को भी ऐन मौके पर मजबूरन विधानसभा मैदान में डटना पड़ेगा।

जाहिर है, पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा के कंधे पर बैठे जयराम की मंशा बिन कहे धूमल और उनके केंद्रीय मंत्री पुत्र अनुराग सिंह ठाकुर से चुनावी दंड बैठकें निकलवाने की है। यह जगजाहिर है कि गर्दन झुका कर चलने के आदी धूमल मैदान भी संभाल लें मगर ऊना, हमीरपुर, चंबा और सबसे बिगड़ैल कांगड़ा जैसे निचले क्षेत्र में वफादारों को काबू करना पार्टी के इस सबसे बड़े क्षत्रप के लिए भी मुश्किल होने वाला है।

दरअसल, धूमल के साथ जयराम की रार भाजपा की 2007 की सरकार के दिनों में मंत्रिमंडल को लेकर शुरू हो गई थी। तब तीसरी बार के विधायक जयराम को कैबिनेट मंत्री के सिवाय कुछ मंजूर नही था और कुछ अरसे बाद उन्हें पार्टी अध्यक्ष बना दिया गया। कार्यकाल के आखिर में पंचायती राज महकमे के वजीर बने जयराम की वह खटास मुख्यमंत्री की गद्दी हथियाने के बाद भी थमने का नाम ले रही।

सब जानते हैं कि पिछले विधानसभा चुनाव में धुआंधार चुनावी प्रचार के कारण धूमल पार्टी को तो सत्ता में ले आए थे, मगर एक राजनीतिक विध्वंस के नतीजतन खुद वे पराजय का शिकार हो गए। अब सत्ता में वापसी के लिए जयराम को संगठन महासचिव पवन राणा की दरकार हो गई है।

15 हलकों वाला यह जिला सरकार बनाने में रहा है हमेशा अहम

कहा जा रहा है कि कांगड़ा फतह करने के लिए चौपर से चढ़ाई कर रहे जयराम के दौर में प्रदेश का यह सबसे बड़ा जिला ही जब बेकाबू है तो अगर पिछले चुनाव की कमान जयराम ही संभालते तो कांग्रेस को गिराना नामुमकिन था। बहरहाल तमाम एंजंसी रिपोर्ट ने लोगों की मानसिकता का अंदाजा लगाकर सत्ता परिवर्तन मान लिया है।

गए साल के अक्तूबर में मंडी संसदीय क्षेत्र और विधानसभा के तीन उपचुनावी मुकाबलों में करारी शिकस्त के बावजूद उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड की जीत से अति उत्साही जयराम के प्रबंधकों ने अब रिवाज बदलने का नारा गढ़ दिया। नतीजन लोगों में छवि संकट का सामना कर रही सरकार के कुछ अहलकार ही इसे ‘बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना’ करार दे रहे हैं।

बहरहाल पार्टी संगठन का कार्य देख रहे संघ के महासचिव पवन राणा भी अंदरुनी सर्वेक्षण को जानते हैं। लिहाजा सत्ता बदलाव की मानसिकता के कारण राणा नवंबर में विधानसभा के साथ डेढ़ बरस बाद होने वाले लोकसभा की चुनावी जंग के भी रणनीतिकार बने हुए हैं। भाजपा में दिलचस्प यह है कि सरकार के गठन तक राणा की हां में हां मिलाने वाले जयराम ने कुछ दिनों बाद ही पवन की बातों पर न नुकर करना शुरू कर दिया था। जाहिर है, पार्टी के अंदर ऐसे लोगों की संख्या भी बहुत ज्यादा है जो राणा को ही मुख्यमंत्री के तख्त पर देखना चाहती है। कहना न होगा दिसंबर में सत्ता बदली तो उसके बाद जयराम को भी धूमल बनने में देर नहीं लगेगी।