करीब दस साल बाद बंधुआ मजदूरी की गुलामी से आजाद हुए कासी शरीर को सीधा रखना अब भूल चुके हैं। उनके शरीर की हड्डियां इस कदर कमजोर हो चुकी है कि कुछ दूर चलने के बाद वह आगे नहीं चल पाते। 11 जुलाई को कासी उस वक्त देशभर की मीडिया की सुर्खियों आए जब राजस्व विभाग के अधिकारियों के पैरों में पड़े हुए उनकी तस्वीर सामने आई। वह अधिकारियों से अपने परिवार को बंधुआ मजदूरी की गुलामी से आजाद कराने की भीख मांग रहे थे।
दरअसल दस साल पहले कासी ने गांव में त्योहार मनाने के लिए नटराज नाम के शख्स से बीस हजार रुपए उधार लिए। जल्द ही यह रकम चालीस हजार रुपए तक पहुंच गई। कर्ज की रकम चुकाने के लिए उन्होंने सालों तक सप्ताह के सातों दिन 12 घंटे तक काम किया। मगर उनके मालिक का कहना है कि कासी को कर्ज चुकाने के लिए अभी और काम करने की जरुरत है।
कासी ने बताया, ‘हमसे कहा गया कि एक टन लकड़ी काटने के बदले में हमें एक हजार रुपए मिलेंगे। मगर जब लकड़ी लोड की जाती तब हमें दूर रखा जाता। इसलिए हमें कभी नहीं पता चला कि हमने कितना कमाया। हमें अस्पष्ट और मौखिक हिसाब बताया जाता, जिसे हम समझ नहीं पाते थे। इस तरह हम काम करते रहे।’
बीते सप्ताह कासी और 41 अन्य लोगों को तमिलनाडु के कांचीपुरम जिले से दो अलग-अलग लकड़ी के कारखाने से राजस्व विभाग के अधिकारियों ने बंधुआ मजदूरी की कैद से आजाद कराया। हालांकि सही मायने में कासी अभी भी पूर्ण रूप से स्वतंत्र नहीं हैं। उप जिलाधिकारी ए सरवनन ने अभी तक सर्टिफिकेट जारी नहीं किया है, जिससे उनकी पहचान बंधुआ मजदूरी की कैद से आजाद कराए गए शख्स के रूप में हो।
दरअसल बंधुआ मजदूरी को सालों पहले खत्म कर दिया गया था। इस प्रथा को खत्म करने लिए साल 1976 में एक कानून पास किया गया। बंधुआ मजदूरी से आजाद कराए गए लोगों को ऐसे कागजात दिए जाते हैं जिसमें कहा जाता है कि उन्हें पुनर्वासित करने की जरुरत है और उनके पास नकद या किसी प्रकार कर्ज नहीं है। उन्हें दो लाख रुपए की वित्तीय मदद भी दी जाती है।
कानून के मुताबिक किसी भी व्यक्ति को बंधुआ मजदूरी से आजाद कराने के बाद यह प्रक्रिया तुरंत शुरू होती है। टीओआई की खबर के मुताबिक आजाद होने के एक सप्ताह बाद भी कासी और उनके जैसे 26 अन्य लोग इन प्रमाणपत्रों के मिलने का इंतजार कर रहे हैं।

