उत्तर प्रदेश सरकार के 2025 अध्यादेश के बाद मथुरा-वृंदावन स्थित श्री बांके बिहारी मंदिर के मैनेजमेंट से संबंधित कई याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गई थी। अब इन याचिकाओं पर सोमवार को सुप्रीम कोर्ट सुनवाई करेगा। सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट के अनुसार जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की पीठ 4 अगस्त को सुनवाई के लिए इन याचिकाओं पर विचार करेगी। इसमें उत्तर प्रदेश सरकार के हालिया अध्यादेश को चुनौती देने वाली याचिका भी शामिल है, जो श्री बांके बिहारी मंदिर का मैनेजमेंट प्रभावी रूप से अपने हाथ में ले लेता है।

CJI ने नियुक्त की है पीठ

पिछले हफ्ते जस्टिस सूर्यकांत की अध्यक्षता वाली पीठ ने निर्देश दिया था कि इस मामले को भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) के सामने रखा जाए, जो सभी संबंधित याचिकाओं पर एक साथ सुनवाई के लिए एक पीठ नियुक्त करेंगे। इसी तरह की एक याचिका पहले से ही एक अन्य पीठ के समक्ष लंबित है। एक याचिका में तर्क दिया गया है कि उत्तर प्रदेश सरकार का हालिया अध्यादेश धार्मिक मामलों में राज्य के हस्तक्षेप के समान है और मंदिर न तो सार्वजनिक संपत्ति है और न ही राज्य के स्वामित्व वाला ट्रस्ट है।

याचिकाकर्ताओं ने दावा किया कि मंदिर ऐतिहासिक रूप से 1939 में स्थापित एक प्रबंधन योजना के अनुसार एक निजी प्रबंधन ढांचे के तहत संचालित होता रहा है। उन्होंने आगे कहा कि अध्यादेश उस योजना के प्रावधानों का उल्लंघन करता है और वर्तमान मंदिर प्रबंधन समिति की ऑटोनमी को कमज़ोर करता है।

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याचिका में क्या कहा गया?

याचिका में आगे तर्क दिया गया है कि राज्य सरकार के पास ऐसा अध्यादेश जारी करने का कोई ठोस कारण नहीं था और सरकार ने मंदिर के प्रशासन का नियंत्रण अपने हाथ में लेने के लिए कोई पर्याप्त औचित्य प्रस्तुत नहीं किया है। इसमें कहा गया है कि अध्यादेश के प्रावधान स्पष्ट रूप से हरिदासी संप्रदाय (या सखी संप्रदाय) के धर्म के मामले में अपने मामलों का प्रबंधन करने के अधिकार और संप्रदाय के सदस्यों के व्यक्तिगत रूप से अपने धर्म का पालन और प्रचार करने के अधिकार का उल्लंघन करते हैं। अध्यादेश के अनुसार आवश्यक धार्मिक प्रथाओं, अनुष्ठानों, रीति-रिवाजों और परंपराओं में बदलाव करने का प्रयास हैं, जिससे देवता नाराज होंगे और पूरा संप्रदाय विलुप्त हो जाएगा।

अधिवक्ता संकल्प गोस्वामी द्वारा दायर एक याचिका में कहा गया है, “अध्यादेश की धारा 5 (1)(i), 5 (i), 6(8) सीधे तौर पर अनुच्छेद 26(c) और (d) का उल्लंघन करती है क्योंकि यह धार्मिक संप्रदाय से प्रशासन का अधिकार पूरी तरह से छीन लेती है। इसे गैर-सांप्रदायिक धर्मनिरपेक्ष प्राधिकरण को सौंप देती है। इस प्रकार बेहतर प्रबंधन की आड़ में नियमों से परे जाकर अध्यादेश ने धार्मिक संप्रदाय से प्रशासन और प्रबंधन पूरी तरह से अपने हाथ में ले लिया है और एक बिल्कुल नया निकाय बनाया है जहां धार्मिक संप्रदाय को अनावश्यक बना दिया गया है।”