सालों की दुश्मनी के बाद, उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे ने एक राजनीतिक गठबंधन को औपचारिक रूप देने का फैसला किया है, जिसकी घोषणा आगामी नगर निगम चुनावों से पहले बुधवार को की जाएगी। 30 जनवरी 2003 को, शिवसेना के वरिष्ठ नेता राज ठाकरे ने अपने चचेरे भाई उद्धव ठाकरे का नाम पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष पद के लिए प्रस्तावित किया। यह क्षण इसलिए महत्वपूर्ण था क्योंकि राज ठाकरे निजी तौर पर उद्धव के कामकाज के तरीके की अक्सर आलोचना करते थे। फिर भी सार्वजनिक रूप से उन्होंने उस निर्णय का समर्थन किया जिसने पार्टी के भविष्य को बदल दिया।

इस प्रस्ताव को शिवसेना ने स्वीकार कर लिया, जिससे घटनाओं की एक ऐसी श्रृंखला शुरू हुई जिसके परिणामस्वरूप अंततः राज ठाकरे ने अलग होकर 2006 में महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का गठन किया। इस विभाजन ने दोनों चचेरे भाइयों के बीच लगभग दो दशकों की राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता की शुरुआत की। अब जब दोनों भाई एक होने जा रहे हैं वह भी ऐसे समय में जब ठाकरे परिवार का नाम महाराष्ट्र के शहरों में अब उतना प्रभावशाली नहीं रह गया है, जितना पहले हुआ करता था। इस पुनर्मिलन ने एक अहम सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या मतदाताओं के लिए यह गठबंधन अब भी मायने रखता है या महाराष्ट्र की राजनीति में बदलाव आ चुका है।

ठाकरे गठबंधन अब क्यों मायने रखता है?

कई सालों से, शिवसेना और एमएनएस के बीच का विभाजन मुंबई के मराठी भाषी मतदाताओं को बांटता आ रहा है। कई नगर निगम वार्डों में इस विभाजन ने प्रतिद्वंद्वी दलों को मामूली अंतर से जीत दिलाने में मदद की है। दोनों के बीच एक समझौता, भले ही वह सीटों के बंटवारे या अनौपचारिक सहयोग तक ही, इस विभाजन को कम कर सकता है और मुंबई के महत्वपूर्ण क्षेत्रों में नतीजों को बदल सकता है।

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पिछले चुनावों के आंकड़े इस बात को पुष्ट करते हैं। जब अविभाजित शिवसेना ने भाजपा के बिना अकेले चुनाव लड़ा तो उसे मुंबई में 28.29 प्रतिशत वोट मिले जबकि भाजपा 27.32 प्रतिशत वोटों के साथ दूसरे स्थान पर रही। एमएनएस को 7.73 प्रतिशत वोट मिले। इससे पहले के चुनावों में, शिवसेना को 21.85 प्रतिशत, एमएनएस को 20.67 प्रतिशत वोट मिले थे, जबकि शिवसेना के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ रही भाजपा को केवल 8.64 प्रतिशत वोट ही मिल पाए थे। शिवसेना में हुए विभाजन के कारण आए बदलावों के बावजूद, शिवसेना, यूबीटी और एमएनएस के संयुक्त वोट बैंक में अभी भी, कम से कम कागजों पर नगर निगम चुनावों में कड़ी टक्कर देने की क्षमता है।

ठाकरे परिवार में एकता का प्रदर्शन शिंदे के शिवसेना की विरासत पर दावे को कमजोर कर सकता है

उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे द्वारा ठाकरे परिवार में एकता का प्रदर्शन एकनाथ शिंदे के शिवसेना की विरासत पर दावे को कमजोर कर सकता है। कई मराठी मतदाताओं के लिए जो अभी भी शिवसेना के अतीत को बहुत सम्मान देते हैं, यह एकजुटता भावनात्मक रूप से महत्वपूर्ण हो सकती है और मतदान में पार्टी की विरासत को लेकर लोगों की सोच को प्रभावित कर सकती है।

आंकड़ों से परे, इस गठबंधन का भावनात्मक महत्व भी है। मुंबई की राजनीतिक स्मृति में, विशेषकर वरिष्ठ मतदाताओं के बीच, बाल ठाकरे की छवि आज भी प्रबल है। उनके बेटे और भतीजे को एक मंच पर देखना उन समर्थकों को एकता का संदेश देता है जिन्होंने वर्षों से परिवार और पार्टी को विभाजित होते देखा है। ऐसे समय में जब मतदाता दलबदल और निष्ठा परिवर्तन से थक चुके हैं, इस प्रतीकात्मकता का महत्व आज भी बरकरार है।

उद्धव ठाकरे अपने साथ पार्टी की सुस्थापित संरचना और मुंबई की नागरिक राजनीति का लंबा अनुभव लेकर आए हैं। वहीं, राज ठाकरे का आकर्षण कुछ अलग है। उनके भाषणों का तीखा लहजा मराठी मतदाताओं के उन वर्गों को प्रभावित करता है जो मानते हैं कि शिवसेना ने अपनी पहले वाली आक्रामकता खो दी है।

ठाकरे भाइयों के गठबंधन में अभी भी मतभेद क्यों?

चचेरे भाइयों के बीच मतभेद की जड़ विचारधारा नहीं बल्कि नेतृत्व थी। यह मुद्दा आज तक पूरी तरह सुलझा नहीं है। दोनों नेताओं के मजबूत व्यक्तित्व और वफादार अनुयायी हैं और यह अभी भी स्पष्ट नहीं है कि उम्मीदवारों और सत्ता पर नियंत्रण के संबंध में निर्णय कैसे लिए जाएंगे। उनकी राजनीतिक शैली भी भिन्न है। उद्धव ठाकरे ने हाल के वर्षों में अधिक संयमित दृष्टिकोण अपनाया है, जबकि राज ठाकरे जोशीले भाषणों और सीधे हमलों पर निर्भर रहना जारी रखे हुए हैं। इन शैलियों को मिलाने से लोकप्रियता बढ़ सकती है लेकिन इससे चुनाव प्रचार के दौरान भ्रम की स्थिति भी पैदा हो सकती है।

मुंबई भाजपा अध्यक्ष अमित सतम ने कहा, “अगर ठाकरे भाई एक साथ आकर चुनाव लड़ते हैं तो भी बीएमसी चुनाव के नतीजों पर कोई असर नहीं पड़ेगा।” उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे के बीच संभावित राजनीतिक समझ का असर मुंबई के नगर निगम चुनाव से परे भी हो सकता है, खासकर महा विकास अघाड़ी और शिवसेना यूबीटी के कांग्रेस के साथ संबंधों पर।

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