मनोज कुमार मिश्र
पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के ठीक एक दिन पहले दिल्ली चुनाव आयोग ने निगम चुनाव की तारीख घोषित करने के बजाय यह जानकारी दी कि केंद्र सरकार दिल्ली के तीन निगमों को 2012 से पहले की तरह एक करने की योजना बना रही है। मुख्य चुनाव आयुक्त संजय कुमार श्रीवास्तव ने कहा कि अब चुनाव की तारीख कुछ दिन बाद घोषित की जाएगी।
कांग्रेस के दिल्ली की राजनीति में हाशिए पर जाने के बाद और पंजाब विधानसभा का चुनाव जीतने के बाद आम आदमी पार्टी (आप) के हौसले बुलंद है। उसे लगता है कि दिल्ली की निगमों में 15 साल से सत्ता में काबिज भाजपा को वह आसानी से चुनाव हरा देगी। जिस तरह से चुनाव टाला गया, उससे आम जन में संदेश तो इसी तरह का गया है।
वास्तव में अगर राजनीतिक दल दिल्ली की शासन व्यवस्था में कोई बदलाव करना चाहते हैं तो उन्हें मौजूदा शासन व्यवस्था पर गंभीरता से बहस चलानी होगी। दिल्ली के मुख्यमंत्री और आप के संयोजक अरविंद केजरीवाल ने सवाल उठाया है कि तीनों निगमों को एक करने की बात चुनाव की तारीख करीब आने से पहले क्यों की गई। दिल्ली नगर निगम का 1957 में गठन होने के बाद उसका स्वरूप बदलता रहा है। इतना ही नहीं उसके अधिकारों में लगातार कटौती की जाती रही। दस साल बाद महानगर परिषद बनने और 1993 में विधानसभा बनने के बाद तो उसके काफी अधिकार कम कर दिए गए। बावजूद इसके आज भी नगर निगम ताकतवर है। यह अलग बात है कि निगम के निर्वाचित पार्षदों से अधिक अधिकारियों के पास अधिकार ज्यादा है।
दिल्ली सरकार की तरह दिल्ली के नगर निगम भी स्वशासी हैं। दिल्ली की 15 साल तक मुख्यमंत्री रही शीला दीक्षित को स्वशासित नगर निगम शुरू से ही खलता रहा। वे दिल्ली नगर निगम को उसी तरह दिल्ली सरकार के अधीन लाना चाहती थीं जैसे अन्य राज्यों में राज्य सरकार के अधीन वहां के निगम होते हैं। इस प्रयास में वे सफल नहीं हुई तो उन्होंने निगमों के पुनर्गठन के लिए के लिए कमेटी बनाई।
पहले निगम की सीटें 138 से बढ़ाकर 272 की गर्इं, फिर उसे तीन हिस्सों में बांटा गया। दिल्ली के 87 फीसद इलाकों में दिल्ली सरकार के समानांतर दिल्ली के नगर निगमों की सत्ता चलती है। 1957 में दिल्ली नगर निगम बना। 1966 में महानगर परिषद बनी, उससे निगम के अधिकार कुछ कम हुए। 1989 में महानगर परिषद को भंग करके सरकारिया आयोग और बालाकृष्ण कमेटी की सिफारिशों के अनुरूप 1991 में 69 वें संविधान संशोधन के माध्यम से दिल्ली को सीमित अधिकारों वाली विधानसभा मिली।
1993 में विधानसभा के चुनाव हुए। संविधान तैयार करने वाले नेताओं ने यह तय कर दिया था कि दिल्ली केंद्र शासित प्रदेश ही रहेगा। दिल्ली विधानसभा को राज्य सूची के 66 में से 63 विषय सौंपे गए हैं। इन पर दिल्ली मंत्रिमंडल स्वतंत्र रूप से फैसला ले सकता है। यही सुप्रीम कोर्ट ने चार जुलाई 2018 के अपने फैसले में कहा अधिकारियों पर नियंत्रण के लिए अदालत की पीठ सुनवाई कर रही है।
तब कांग्रेस व भाजपा ही थीं ताकतवर
दिल्ली में आप के ताकतवर होने से पहले कांग्रेस और भाजपा (पहले जनसंघ, फिर जनता पार्टी) दो ही पार्टी दिल्ली में ताकतवर होती थीं। केंद्र्र में ज्यादातर शासन कांग्रेस का होता था, इसलिए दिल्ली को राज्य बनाने और बाद में दिल्ली को पूर्ण राज्य बनाने का आंदोलन भाजपा चलाती थी। कांग्रेस ने तो पहली बार दिल्ली में शीला दीक्षित की सरकार बनने पर यह मुद्दा उठाया। तब केंद्र सरकार ने दो परिपत्र जारी करवाकर दिल्ली सरकार के अधिकारों में कटौती करवा दी थी। शीला दीक्षित ने इसका विरोध किया। संसद तक विधायकों के साथ मार्च निकाला। विधानसभा में दिल्ली को पूर्ण राज्य का प्रस्ताव पास किया। लेकिन केंद्र सरकार ने उसमें कोई बदलाव नहीं किया।
तब शीला दीक्षित ने दिल्ली सरकार के समानांतर चल रहे समानांतर सत्ता केंद्र नगर निगम को पूरी तरह से दिल्ली सरकार के अधीन करने की मुहिम चलाई। उसमें उन्हें आंशिक सफलता ही मिली। निगम के वार्ड छोटे हुए, उनका तीन जगह विभाजन हुआ लेकिन उसकी स्वशासी व्यवस्था नहीं बदली। दिल्ली सरकार का शहरी विकास सचिव निगमों की देखरेख करता है लेकिन दिल्ली के तीनों निगम सीधे केंद्र सरकार के माध्यम से उपराज्यपाल के अधीन हैं। दिल्ली की साफ-सफाई आदि के लिए दिल्ली के वित्त आयोग की सिफारिशों के आधार पर दिल्ली सरकार निगमों को पैसा देती है।
एक या तीन नगर निगम, सहूलियतों का क्या?
यह आम आदमी के समझ से परे है कि एक निगम को तीन निगम बनाने या तीन निगम को फिर से एक बना देने से वह लोगों का ज्यादा भला कर पाएगा। संभव है कि तीन निगम एक हो जाएं तो तीन महापौर समेत अनेक पदाधिकारियों पर होने वाले खर्चे कम हो जाएं, तीन निगम की अलग-अलग बैठक होने के बजाय एक साथ बैठक होने लगे लेकिन इससे न तो हजारों करोड़ का घाटा खत्म होगा और न ही आम लोगों को ज्यादा सहूलियत मिल जाएगी।
पहले निगम मुख्यालय चांदनी चौक के टाउन हाल में था, अब रामलीला मैदान के सामने सिविक सेंटर (डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी भवन) में हो गया है। वह भवन उत्तरी निगम का होने के बावजूद वह निगम घाटे में है। विभाजन के बाद उत्तरी और दक्षिणी नगर निगम का मुख्यालय तो वहीं रहा, अलबत्ता पूर्वी दिल्ली नगर निगम का पटपड़गंज में दिल्ली सरकार के पहले के उद्योग विभाग के दफ्तर में लाया गया। जोन पहले भी 12 थे, बाद में भी 12 ही रहे। तीनों में से अपना खर्चा निकाल लेने वाला दक्षिणी दिल्ली नगर निगम का दफ्तर को दस साल में बनता ही रह गया।
पैसा न देने का आरोप केंद्र सरकार, दिल्ली सरकार और निगमों में स्थायी रूप से लगते रहते ही है। तीन से एक निगम होने से खर्चे कुछ घटने के अलावा कुछ होने की संभावना नहीं है। इसलिए जरूरी है कि इसी बहाने दिल्ली के प्रशासनिक ढांचे पर बहस करके एक ठोस व्यवस्था बनाई जाए, जिससे दिल्ली के लोगों का सही मायने में भला हो और देश की राजधानी के अनुरूप दिल्ली की प्रतिष्ठा बनी रहे।