विशेषज्ञों के अनुसार जहां मानव जीवन लगातार प्रदूषण के खतरे की चपेट में है वहीं स्मारक भी इससे बेअसर नहीं हैं और उनपर प्रदूषित हवा का प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। स्मारकों खासकर सफेद संगमरमर और चूना पत्थर के बने स्मारकों के प्रभावित होने का सबसे साफ लक्षण उनका पीला पड़ना है जैसा कि आगरा के ताजमहल में हो रहा है।

वाहनों और उद्योगों से पैदा होने वाले सल्फर डाइऑक्साइड और नाइट्रोजन डाइऑक्साइड जैसे प्रदूषक हवा की नमी से रासायनिक अभिक्रिया कर ऐसे ऐसिड को जन्म देते हैं जो संगरमरमर को प्रभावित करता है जिससे उसका रंग बदलता है। यहां तक कि उसका क्षरण भी होता है। दिल्ली में लोटस टेंपल भी इससे प्रभावित हुआ है। यह स्मारक संभवत: यातायात की बढ़ती भीड़ और वाहनों से होने वाले उत्सर्जन का शिकार हो रहा है जिससे स्मारक का रंग धूसर हो रहा है।

शिक्षाविद, कार्यकर्ता और लेखक सुहैल हाशमी के मुताबिक स्मारकों को पहुंचने वाले नुकसान की प्राथमिक स्तर पर जांच के लिए किसी भीगे रूमाल को स्मारक की दीवार पर रगड़ने की जरूरत है। ऐसा करने पर काली सी गंदगी निकलती है जो कि धूल नहीं है बल्कि वाहनों का अधजला ईंधन और उद्योगों से निकलने वाला सल्फर का धुआं है। उन्होंने कहा, ‘ये दरारों में घुस जाते हैं और समय के साथ जमा होता चला जाता है। अम्लीय वर्षा उसमें रिसाव कर स्मारकों को क्षति पहुंचाती है।’

हाशमी ने कहा, ‘लाल किले में बने चूना पत्थर के दरवाजों का 2010 में राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान नवीनीकरण किया गया था और वह करीब छह सालों में पीला पड़ गया है। प्रदूषण का यह असर होता है।’ इंडियन नेशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एंड कल्चरल हेरीटेज (आइएनटीएसीएच) के पूर्व के एक बयान के अनुसार प्रदूषण से स्मारकों को हुई क्षति को ‘बदला’ नहीं जा सकता और केवल आगे की क्षति को रोका जा सकता है।

इसी बीच दिल्ली सरकार द्वारा शुरू की गई सम विषम योजना से ऐतिहासिक स्मारकों को राहत मिलती लग रही है क्योंकि इसके कारण न केवल यातायात की भीड़ कम हो गई बल्कि हवा में प्रदूषक भी कम हो गए हैं। दिल्ली के पर्यटन मंत्री कपिल मिश्रा ने कहा, ‘स्मारकों पर प्रदूषण का असर बहुत धीमा और दीर्घकालीन होता है। इससे उनकी चमक दूर हो जाती है और जीवन कम हो जाता है। लंबे समय में उनके संरक्षण के लिए काफी कोशिशें करनी पड़ेंगी।’