दिल्ली में आम आदमी पार्टी (आप) की सरकार को उसके चार साल पूरे होने के दिन ही सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की बेंच ने जोरदार झटका दे दिया। पिछले साल पांच जजों की संविधान पीठ ने चार जुलाई को 2016 के हाई कोर्ट के फैसले को लगभग पलट दिया था, जिसमें कहा गया था कि दिल्ली का उप राज्यपाल ही दिल्ली का शासक (बॉस) है। संविधान पीठ ने गैर आरक्षित विषयों में दिल्ली सरकार को वही अधिकार दिए जो दूसरे सामान्य राज्यों को होते हैं। इससे उत्साहित अरविंद केजरीवाल की सरकार ने अधिकारियों का तबादला, नियुक्ति, भ्रष्टाचार निरोधक शाखा (एसीबी) पर अपने नियंत्रण के लिए सुप्रीम कोर्ट में प्रयास तेज किए। दो जजों की बेंच ने कुछ मतभेद के साथ उनके दावों को सही नहीं माना है। अब मामला तीन जजों की बेंच के पास है।
फैसले में दो जजों में से एक अशोक भूषण ने तो सेवाओं पर दिल्ली सरकार का अधिकार ही नहीं माना, जबकि वरिष्ठ जज एके सीकरी ने कहा कि संयुक्त सचिव से नीचे के अधिकारियों के तबादले का अधिकार उप राज्यपाल की सहमति से दिल्ली सरकार को दिया जाए। लेकिन एसीबी, जांच आयोग बनाने के अधिकार आदि दिल्ली सरकार को नहीं दिए। अंतिम फैसला अब तीन जजों की बेंच करेगी।
संविधान की धारा 239 एए के तहत दिल्ली को केंद्र शासित प्रदेश बनाए रखते हुए सीमित अधिकारों वाली विधानसभा 1993 में दी गई। तब से आज तक अधिकारियों के तबादले आदि उप राज्यपाल के अधीन रहते हुए भी दिल्ली में तैनात अफसरों पर सीधा नियत्रंण दिल्ली की चुनी हुई सरकार का ही रहा। विवाद होने पर ही केंद्रीय गृह मंत्रालय ने मई, 2015 में परिपत्र जारी करके साफ कर दिया कि सेवाओं में दिल्ली सरकार का कोई दखल नहीं रहेगा।
दिल्ली सरकार के विभिन्न विभागों में काम कर चुके एक पूर्व वरिष्ठ आइएएस अधिकारी बताते हैं कि सरकारी नौकरी दो ही तरह की होती है केंद्र की या राज्य सरकार की। दिल्ली केंद्र शासित प्रदेश होने के चलते दिल्ली के कर्मचारी केंद्रीय सेवा के कर्मचारी होते हैं। दूसरा, दिल्ली का अपना कैडर न होने से दिल्ली में एग्मु (अरूणाचल प्रदेश,गोवा, मिजोरम और केंद्र शासित प्रदेश) कैडर के आइएएस अधिकारी तैनात होते हैं और प्रादेशिक सेवा के लिए भी दानिक्स कैडर के अधिकारी तैनात किए जाते हैं।
दिल्ली में भी दिल्ली सरकार के अलावा दिल्ली पुलिस, डीडीए, दिल्ली नगर निगमों आदि में उनकी नियुक्ति होती है जो दिल्ली सरकार के अधीन नहीं हैं। इसलिए विधान बनते समय सेवा विभाग को भी केंद्र सरकार के अधीन रखा गया। विधान में यही कहा गया है कि राज्यों के 66 विषयों में से 63 दिल्ली सरकार के पास रहेंगे और बाकी तीन (पुलिस, जमीन और कानून-व्यवस्था) उप राज्यपाल के अधीन होगा।
अधिकारियों के शासक अलग होने का खमियाजा पहले की सरकारें भी भुगतती रही हैंलेकिन आपसी संवाद से हल निकाला जाता रहा है। पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित बताती हैं कि दिल्ली को पूर्ण राज्य न मानकर ही काम करना चाहिए। तमाम विरोधाभास का हल संवाद से निकलता रहा है। पहली भाजपा सरकार जब दिल्ली में बनी तब मुख्यमंत्री मदन लाल खुराना ने उस समय के उप राज्यपाल पीके दवे से मिलकर संयुक्त सचिव स्तर के नीचे के अधिकारियों के तबादले का अधिकार अपने पास ले लिया। उन्होंने विभाग प्रमुख तक के अधिकारियों के एसीआर (सालाना गोपनीय रिपोर्ट) लिखने का अधिकार अपने मंत्रियों को दिला दिया, जिसे उप राज्यपाल केवल अंतिम स्वीकृति देते थे।
पुलिस, जमीन और कानून-व्यवस्था के अधिकार उप राज्यपाल के अधीन होने के बावजूद भी सालों से परंपरा रही है कि मुख्य सचिव की नियुक्ति भी दिल्ली सरकार की पसंद से होते रहे हैं। 1998 में पहली बार मुख्यमंत्री बनी शीला दीक्षित ओमेश सहगल के बजाए पीएस भटनागर को मुख्य सचिव बनाना चाहती थीं। भाजपा नेताओं के प्रयास के बावजूद तब के उप प्रधानमंत्री और गृह मंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने सहगल को हटाकर भटनागर को मुख्य सचिव बनाने पर सहमति दी।
अरविंद केजरीवाल के 2013 में मुख्यमंत्री बनने पर डीएम स्पोलिया को हटाकर संजय श्रीवास्तव को मुख्य सचिव बनाया गया। 2015 में सरकार में वापस आने पर केजरीवाल के आग्रह पर संजय श्रीवास्तव को हटाकर स्पोलिया को मुख्य सचिव बनाया गया। स्पोलिया के सेवानिवृत्त होने पर गोवा के मुख्य सचिव केके शर्मा को दिल्ली का मुख्य सचिव बनाया गया।
यह अलग बात है कि केके शर्मा दिल्ली के पहले मुख्य सचिव बने जिन्हें सरकार ने असंख्य कारण बताओ नोटिस दिए और उनके अधिकार सीज कर लिए। तब तक केजरीवाल के राजनिवास से विवाद शीर्ष पर पहुंच गया और उसके बाद के मुख्य सचिव उनकी पसंद से नहीं बने। बाद के मुख्य सचिव एमएम कुट्टी और अंशु प्रकाश से केजरीवाल के विवाद जगजाहिर रहे। जो गैर आरक्षित विषय पर हर फैसला लेने के लिए दिल्ली सरकार स्वतंत्र थी उसमें भी राजनिवास से अडंगे लगने लगे।
पहले यह पता ही नहीं चलता था कि कौन से तबादले की सूची राजनिवास में रुकी है। यही बताया जाता था कि दिल्ली सरकार में तो तैनाती की फाइल राजनिवास गई और सार्वजनिक होने से पहले स्वीकृत होकर आ गई। हर मुद्दे पर विवाद होने और सार्वजनिक होने से राजनिवास और दिल्ली सरकार के संबंध इस कदर खराब हुआ कि हर चीज अदालत से तय होती है। इसी का परिणाम है कि केजरीवाल सार्वजनिक रूप से फैसले की आलोचना कर रहे हैं।

