भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के सुल्तानपुर से सांसद वरुण गांधी ने एक किताब लिखी है, जिसका नाम है रूरल मेनिफेस्टो अर्थात ‘A Rural Manifesto: Realising India’s Future Through Her Villages’। यह किताब ग्रामीण अर्थव्यवस्था को आत्मनिर्भर बनाने पर ध्यान देने के लिए विकास नीति में संभावित समाधान पर लिखी गई है। किताब लिखने के लिए वरुण गांधी ने महीनों गांवों में बिताए। अपनी किताब और अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों पर बात करते हुए भाजपा सासंद ने इंडियन एक्सप्रेस की पत्रकार की लिज मैथ्यू से कहा, ‘ग्रामीण संकट पर राष्ट्रीय स्तर पर वार्तापाल की आवश्यकता है।’ बातचीत में सांसद ने कई सवालों के जवाब दिए, जो इस प्रकार हैं।

विभिन्न राज्यों के किसान, भाजपा शासित राज्य भी शामिल, राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में अपनी शिकायतों के लिए जमा हुए।
भारत के तीव्र कृषि संकट ने इस उथल-पुथल को जन्म दिया है। किसानों में निराशा बढ़ी है। किसानों को अब खुद को मारने के बजाय जीने के लिए और अधिक साहस की जरुरत है। पहले से कहीं ज्यादा, अब हमें ग्रामीण संकट पर राष्ट्रीय बातचीत की जरुरत है।

क्या कृषि क्षेत्र के मुद्दे चुनावी राजनीति में भूमिका निभाते हैं?
जैसे-जैसे संचार क्रांति अपने चरम पर पहुंचेगी, यह एक प्रमुख मुद्दा बन जाएगा। मगर जाति पहचान, धर्म आदि जैसे मुद्दे हैं, जिन पर किसान या बुनकर वोट देते हैं। जब तक हम ऐसी परिस्थिति में नहीं पहुंचते जहां किसान अपने विमर्श, आकांक्षा और कृषि श्रम पर वोट देते हैं, राजनेता दुर्भाग्यवश हमेशा पहचान, धर्म, जाति और क्षेत्र जैसे मुद्दों पर पहुंचकर केंद्रीय मुद्दों को दूर करने का एक तरीका खोजेंगे, जो स्पष्ट रूप से, विविधतापूर्ण मुद्दें हैं। जब किसान एक किसान के रूप में मतदान करते हैं। तब राजनेताओं को उनके मुद्दों का समाधान करने के लिए मजबूर किया जाएगा।

आपने अपनी किताब में ग्रामीण संकट के मुद्दे पर बात की है? क्या आपको लगता है कि ग्रामीण संकट, जिससे देश के कई हिस्सों में सार्वजनिक विरोध प्रदर्शन हुआ, सरकारी नीतियों से जुड़ा है?
ग्रामीण संकट हाल की घटना नहीं है। यह सदियों से नहीं दशकों से जारी है। कोई भी सरकारी नीति जिसके नीयत साफ हो इसके भी अनेपेक्षित पारिणाम हो सकते हैं। ट्यूबवेल सब्सिडी पर विचार करें। किसी भी सरकार (पिछली और वर्तमान सरकार) को दोष देने के बजाय हमें ग्रामीण संकट के मुद्दों का मूल्यांकन करने की जरुरत है। लोगों के कल्याण को ध्यान में रखते हुए विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण से हमारी नीतियों पर फिर से विचार करने की जरुरत है। मैं ग्रामीण संकट पर बातचीत शुरू करना चाहता हूं।

हाल ही में किस केंद्र सरकार की योजना ने ग्रामीण जीवन और इसकी अर्थव्यवस्था को सबसे ज्यादा छुआ है?
यदि विभिन्न सरकारों में से एक योजना को चुनना है तो मनरेगा (यूपीए के शासन में लाई गई योजना) योग्य उम्मीदवार है। क्योंकि लाखों लोगों को रोजगार प्रदान करके ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ा है। इसने ग्रामीण बाजार में श्रम मजदूरी प्रवाह को प्रभावी ढंग से बनाया है। न्यूनतम मजदूरी बढ़ा दी है। ग्रामीण भेद्यता कम की है। इस योजना की वजह से श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी में वृद्धि हुई है।

विभिन्न नेताओं द्वारा गांवों को अलग-अलग ढंग से देखा गया था। महात्मा गांधी के लिए गांव यह सत्यता के स्थल थे। जवाहरलाल नेहरू के लिए गांव पिछड़ेपन का एक स्थान थे। आंबेडकर के लिए यह उत्पीड़न का एक स्थान था। A Rural Manifesto: Realising India’s Future Through Her Villages के लेखक के रूप में आप भारत के ग्रामीण क्षेत्र को किस रूप में देखते हैं?
तीनों (नेता) के लिए एक गांव असली भारत का प्रतिनिधित्व करता है। मेरी पुस्तक एक पादरी में गांव नहीं देख रही है। पुस्तक सुखद जीवन या मदर इंडिया के आदर्श नहीं देख रही। यह गांव को व्यवहार्य आर्थिक इकाई के रूप में देखने के बारे में है, इसलिए गांव जीवित रह सकता है और बढ़ सकता है।