सावन का महीना है और भोले भक्तों की टोली सड़कों पर दिखने लगी है। भगवा कपड़े पहने भक्त अपनी मस्ती में मगन होकर अभिषेक के लिए निकल रहे हैं। लेकिन सड़कों पर दिखने वाला नजारा कुछ अलग सा है। वाहन से निकल रहे कावंड़धारी लालबत्ती फांदना, बीना हेल्मेट मोटरसाइकिल चलाना, दुपहिया पर तीन-तीन सवारी लेकर चलना, ध्वनी प्रदूषण पर मनमानी करने सहित कई कृत्य ऐेसे कर रहे हैं जैसे मानो, नियम-कानून को न मानने की छूट इन्हें मिल गई हैं ! क्या मजाल कि कोई पुलिस वाला उन्हें हाथ दे दे। या कोई अफसर इस बाबत उन्हें रोक ले । उन्हें कौन बताए कि कुछ की करनी से सारे श्रद्धालु बदनाम होते हैं। भक्ति में यातायात नियम टूटने के साथ लगने वाले जाम से भी लोग पुलिस व्यवस्था को कोस रहे हैं। पुलिस भक्तों के लिए न तो कोई इंतजाम कर पाई और न ही सड़क पर आम लोगों के बिना दिक्कत निकलने की कोई रणनीति बना पाई। आम लोग इसे झेलने को इसलिए मजबूर हैं क्योंकि कांवड़धारी सब पर भारी हैं।
नाम की सुविधा
नई दिल्ली नगरपालिका परिषद यानि एनडीएमसी ने कुछ दिन पहले सुविधा देने के नाम पर अपने तमाम सार्वजनिक सुविधा परिसर में एटीएम से लेकर स्वास्थ्य जांच के लिए नर्सिंग स्टाफ को बैठाया। शुरू में तो आम लोगों को समझ ही नहीं आया लेकिन जब परिसर में जाकर जानकारी ली गई तो कहा गया कि सुबह के सैर के बाद जिन्हें मधुमेह, ब्लडप्रेशर या इसी प्रकार की स्वास्थ्य संबंधी जांच करनी हो तो कुछ पैसे सुविधा शुल्क देकर यहां जांच करा सकते हैं। लेकिन यह सुविधा उद्घाटन से लेकर अधिकारियों के औचक निरीक्षण तक ही सीमित रह गया। इस समय कुछ को छोड़कर ज्यादातर में न कहीं नर्सिंग स्टाफ दिखते हैं न ही कोई अन्य सुविधा। जंतर मंतर और शिवाजी स्टेडियम जैसे भीड़ भाड़ वाले परिसर में हो शौचालय इतने बदबूदार है कि उसे प्रयोग करना तो दूर उसके आसपास खड़े होना भी स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से नुकसानदायक है।
बिन साहब कुर्सी
दिल्ली पुलिस मुख्यालय में इन दिनों कई कमरों में कुर्सी तो लगी हुई है, लेकिन वह बिना साहब की हैं। मतलब, ऐसे कमरे में कुर्सी अधिकारियों की बाट जोह रही हैं। बेदिल ने पिछले दिनों मुख्यालय के कई कमरों में खाली कुर्सी देखी तो इसकी तहकीकात की। पता चला कि कई साहब का दूसरे विभाग में स्थानांतरण हो गया है और उनकी जगह अभी कोई आया नहीं तब ऐसे में कुर्सी तो खाली रहेंगी ही है। लेकिन इसमें चिंता की बात है कि यहां ऐसे महत्त्वपूर्ण विभागों की कुर्सियां खाली पड़ी हैं जहां प्रतिपल अधिकारी की जरूरत है ताकि विभागीय कार्यों में समन्वय बनाया जा सके। बेदिल ने किसी से पूूछा कि ये कुर्सियां कब तक भर जाएंगी, तो जवाब मिला कि जब साहबों को दूसरे कामों से फुरसत मिलेगी तब।
जुबान पर ताला
आमतौर पर राजधानी में जब भी कोई बड़ी आपराधिक घटना घट जाती है तो दिल्ली की सुरक्षा व्यवस्था को संभालने वाले संबंधित विभाग के अधिकारी एकदम से चुप्पी साध लेते हैं। भले ही उनके पास पूरी जानकारी हो। पर सूचना को साझा करने की बजाय थोड़ा इंतजार करने की बात कहते हैं। ऐसे में जब कोई खबरनवीस बयान के अभाव में कुछ छाप देता है तो यही अधिकारी अपनी नाक से लेकर भौं तक चढ़ा लेते हैं। लेकिन अब घटना के बाद एक रटा-रटाया वाक्य सुनाया जाता है। मामले की छानबीन चल रही है। फिलहाल कुछ भी कहना जल्दबाजी होगा। हैरानी तो तब होती है, जब घटना एक-दो दिन पुरानी हो या फिर कई घंटे पहले ही घटित हो चुकी हो। तब भी यही कहा जाता है कि फिलहाल कुछ भी कहना जल्दबाजी होगा। यहां तक अधिकारी खुद भी मौके पर पहुंचते हैं और फिर भी उन्हें मीडिया को कोई स्पष्ट जानकारी नहीं देनी होती।
पलटा दांव
औद्योगिक महानगर में शुरुआती दौर में बनाए गए औद्योगिक सेक्टरों में भू-उपयोग और अतिरिक्त निर्माण को लेकर आबंटन निरस्तीकरण और नोटिस जारी करने का मामला इन दिनों सुर्खियों में है। यहां तक कि कुछ दिन पहले तक राजनीतिक दल से जुड़े और व्यापारी संगठनों के जो पदाधिकारी प्राधिकरण के औद्योगिक विभाग के आला अधिकारियों को अपना रिश्तेदार बताकर दूसरों के काम कराने का ठेका लेते थे, वे भी इन दिनों सामाजिक दबाव या अपना उल्लू सीधा नहीं होने की आशंका में चुनिंदा अधिकारियों के खिलाफ सोशल मीडिया पर मोर्चा खोल बैठे हैं। अवैध वसूली, स्थानांतरण रुकवाने जैसे तमाम आरोप अब हमले के तौर पर अधिकारियों पर हो रहे हैं। हालांकि बेदिल को पता चला कि अभी तक तो ये लोग ही अधिकारियों के पास बैठकर नेतागिरी चमकाते थे। पता चला कि ये अपना दांव पलटने में चूकते नहीं।
‘पूर्व’ का जिक्र
दिल्ली में एक राजनीतिक पार्टी दफ्तर में आए दिन कोई न कोई बैठक होती रहती है। पिछले दिनों बैठक के दौरान ही पार्किंग से एक वाकया चर्चा का विषय बन गया। दरअसल, यहां बैठक में शामिल होने आए एक कार्यकर्ता की गाड़ी नेताओं को कुछ ज्यादा ही रोमांच दे रही थी। हुआ यूं, कि इस गाड़ी पर बड़े-बड़े अक्षरों में अध्यक्ष नाम की प्लेट लगी हुई थी। कानाफूसी हुई कि आखिर अध्यक्षजी ने गाड़ी कब बदल ली, या रातों रात अध्यक्ष बदल गए, पता ही नहीं चला। जब लोगों की जिज्ञासा बढ़ती गई तो किसी नेता ने नजदीक से जाकर प्लेट देखी। पता चला कि अध्यक्ष शब्द के आगे छोटे से अक्षर में ’पूर्व’ भी ऐसे लिखा था कि किसी को दिखे न। यह प्लेट मीडिया विभाग के अध्यक्ष की थी वो भी पूर्व। बाद में इसकी चर्चा संबंधित नेता के पास पहुंची तो वे भी झेप गए।
-बेदिल