किसी भी रचनाकार के समग्र से गुजरते हुए कुछ ऐसे तत्त्व जेहन में रेखांकित हो जाते हैं जो पाठक के लिए लेखक की पहचान होते हैं। ठीक वैसे ही, जैसे हम पहली दफे किसी मुहल्ले में जाएं तो उसकी गलियां, उसके मकान, कुछ पेड़-पौधे हमारे जेहन में पैठ जाते हैं। अगली दफे किसी और मुहल्ले से गुजरते हुए या सालों बाद उसी मुहल्ले में घुसते हुए हमारे भीतर बसी यह पहचान कुनमुनाने लगती है। हम बेचैनी से तलाशते हैं इन पहचानों को। अमूमन रचनाओं के बीच से गुजरते हुए कई बार ऐसे कई चिह्न , ऐसे कई तत्त्व जाने-अनजाने में अपने भीतर रख लेते हैं। इन्हीं चिह्नों-तत्त्वों के जरिए हम लेखक को पहचानते हैं, उसके मूल स्वर, तेवर तक पहुंचते हैं। लेखक के मूल स्वर और तेवरों से भरी रचनाएं उसकी प्रतिनिधि रचना मानी जाती हैं।

किताबघर प्रकाशन से आई तेजेंद्र शर्मा की ‘दस प्रतिनिधि कहानियां’ ऐसी ही रचनाएं हैं जो उनकी लेखनी की अगुआई करती हैं। तेजेंद्र शर्मा का लेखकीय जीवन भारत से शुरू होकर ब्रिटेन में बस गया। ब्रिटेन में बसते ही उनके साथ प्रवासी लेखक की उपाधि जुड़ गई। भारत से लेकर ब्रितानी जीवन तक के समाज में घुलते-मिलते हुए लेखक का अनुभव कहता है कि पिछले तीन दशकों से मानवीय रिश्ते अर्थ से संचालित होते हैं। वे पन्नों पर अपने पात्रों के जरिए अमीर और गरीब की लड़ाई लड़ते हैं। किताब की भूमिका में लेखक कहते हैं कि कहानी के लिए विचार आवश्यक है न कि विचारधारा। और जब हम संग्रह की पहली कहानी ‘कब्र का मुनाफा’ से गुजरते हैं तो इसके पात्रों के जरिए विचारधाराओं से भी टकराते हैं। अर्थसंचालित समाज ने मौत और कब्र का भी कारोबार शुरू कर दिया है। शिया मुसलमान के लिए अलग कब्रिस्तान। समान हैसियत वालों के मोहल्लों और सोसायटियों में रहने वाले लोग दफ्न भी समान हैसियत के लोगों के साथ होना चाहते हैं। कहानी का पात्र कहता है, ‘यार, ये साला कब्रिस्तान शिया लोगों के लिए एक्सक्लूसिव नहीं हो सकता क्या? वरना मरने के बाद पता नहीं चलेगा कि पड़ोस में शिया है, सुन्नी या फिर वो गुजराती टोपी वाला। यार, सोचकर ही झुरझुरी महसूस होती है। मेरा बस चले तो एक कब्रिस्तान बनाकर उस पर बोर्ड लगा दूं-शिया मुसलमानों के लिए रिजर्व्ड’। वहीं सिर्फ कमाने के खेल से इतर ‘सोशलिस्ट’ पत्नी भी है जो पति के कमाने और दिखाने के बरक्स अपनी संवेदनाओं से मुठभेड़ करती हुई सोचती है। मरने से पहले ही आलीशान जगह पर कब्र आरक्षित करने के खिलाफ वह बगावत कर बैठती है।

नादिरा बहुत कम बोलती है, क्योंकि वह सोचती ज्यादा है। तेजेंद्र शर्मा की कहानी की महिला पात्र आपको खुद से मुठभेड़ करती दिखती हैं। ‘जमीन भुरभुरी क्यों है’ की नायिका कोकिला बेन गबन के आरोप में जेल गए पति और उसकी बेवफाई के सबूत सामने आने के बाद से सोचने लगी है। इसी सोचने के क्रम में पारंपरिक गुजराती परिवार की कोकिला सफेद बालों को रंगना बंद कर देती है, साड़ी छोड़ सिर्फ जींस पहनना शुरू करती है और निर्भरता की सबसे बड़ी निशानी से लड़ कर लंदन की सड़कों पर बेखौफ कार चलाती है। जब तक पति है कोकिला कार नहीं चलाती है, लेकिन पति की गैरमौजूदगी उसे इतना आत्मनिर्भर बना देती है कि डेढ़ साल बाद सजा काट कर लौटे पति को जेल से लाने के लिए खुद नहीं जाती है। नादिरा हो या कोकिला या स्तन कैंसर से जूझती पूनम। ये महिला किरदार बोलती कम हैं और सोचती ज्यादा हैं। जैसे लगता है कि भूमंडलीकरण एक शिक्षक बन कर घर की चारदीवारी के अंदर से बाहर लाकर उन्हें समाज का नया पाठ पढ़ा रहा है। तेजेंद्र की कहानी की महिला पात्र जैसे कह रही हैं कि स्त्री जब समझने लगती है तब कम बोलती है।

तेजेंद्र शर्मा की ये दस प्रतिनिधि कहानियां भूमंडलीकरण से उपजे नए समाज का एक कोलाज हैं। पश्चिम में भी गरीब लोग रहते हैं और वहां के समाज की भी अपनी तरह की विसंगतियां हैं। ‘हाथ से फिसलती जमीन’ के नरेंद्र से उसकी पोती पूछती है, ‘ग्रैंडपा, आपके हाथ इतने काले क्यों हैं..आपका रंग मेरे जैसा सफेद क्यों नही है’ तो उसे लगता है कि लंदन में दिल्ली वाला इतिहास दुहरा दिया गया। अपनी कमजोर जाति के कारण पंजाबियों की पिटाई खाकर वह लंदन भागा था। लेकिन अपनी श्वेत संततियों की उपेक्षा के कारण वह जिस संस्कृति और मुल्क से भागा था उसी को प्यार से याद करने लगता है। उसे अहसास हो जाता है कि लंदन का अपना ‘रैगरपुर’ है।