कांग्रेस ने भी टिकटों के बंटवारे के दौरान जातीय समीकरणों का पूरा ध्यान रखा है। हालांकि इस कारण खास कर भाजपा को गुटबाजी और दलबदल का भी सामना करना पड़ा है। लेकिन खुद उसी ने कांग्रेस से पाला बदल कर आए छह नेताओं को टिकट दिए हैं। मुख्यमंत्री इबोबी सिंह का दावा है कि नए जिलों के गठन का नगा संगठनों की ओर से विरोध का कांग्रेस की जीत की संभावनाओं पर खास असर नहीं होगा। नगा उग्रवादी संगठन एनएससीएन के इसाक-मुइवा गुट के साथ केंद्र का शांति समझौता कांग्रेस के लिए तुरुप का पत्ता साबित हो रहा है। मुख्यमंत्री इबोबी सिंह से लेकर यहां प्रचार के लिए आए पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी तक ने इसी के जरिए भाजपा पर निशाना साधा।
हमले का सबसे प्रमुख हथियार बनाया है। कांग्रेस का दावा है कि मणिपुर की अखंडता की रक्षा सिर्फ वही कर सकती है।
पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर में विधानसभा की महज 60 सीटें ही हैं। वैसे तो यहां घाटी व पवर्तीय इलाकों में विभाजन की खाई पहले से ही है, लेकिन बिहार और उत्तर प्रदेश की तर्ज पर अबकी यहां भाजपा के सत्ता की दौड़ में होने की वजह से इस पर्वतीय राज्य में भी जातीय समीकरण हावी हो रहे हैं।
सीटों का समीकरण
राज्य की 60 सीटों में से एक-तिहाई आरक्षित हैं। इनमें से एक सीट अनुसूचित जाति के उम्मीदवार के लिए है तो 19 अनुसूचित जनजाति के। राज्य में कुछ सीटों पर मुसलमान आबादी ज्यादा है। इसके बावजूद स्थानीय समीकरणों का ध्यान रखते हुए भाजपा ने महज एक मुसलिम उम्मीदवार को टिकट दिया है जबकि कांग्रेस ने तीन। राज्य के वोटर मैतेयी, कूकी व नगा तबके में बंटे हैं। पर्वतीय इलाके की 20 सीटों पर नगा वोटर निर्णायक हैं तो घाटी में मैतेयी और कूकी। नगा संगठन यूनाइटेड नगा कौंसिल ने बीते साल पहली नवंबर से ही अलग जिलों के गठन के मुद्दे पर आर्थिक नाकेबंदी कर रखी है।
पैसों और तोहफों का लेन देन
मणिपुर में चुनावों के मौके पर पैसों या उपहारों के लेन-देन का प्रचलन आम है। उग्रवादी संगठनों व सामाजिक संगठनों के निर्देश और गांव के मुखिया के फैसले ही उम्मीदवारों का भाग्य तय करते हैं। देहाती इलाकों में उम्मीदवार वोटरों को उपहार के तौर पर चावल या चानी के पैकेट देते हैं, लेकिन उनके भीतर नकदी छिपी होती है। मणिपुर विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान विभाग के पूर्व अध्यक्ष और प्रमुख राजनीतिक विश्लेषक प्रोफेसर ईबो कहते हैं कि राज्य में यह सब आम बात है।
घाटी-पहाड़ में विभाजन रेखा
राज्य में घाटी और पहाड़ियों के बीच विभाजन रेखा साफ नजर आती है। इन दोनों इलाकों के बीच रहने वालों के बीच मेल-मिलाप के तमाम प्रयास अब तक अधूरे ही रहे हैं। पहाड़ियों व घाटी में बंटे वाले इस राज्य के इन दोनों इलाके की भौगोलिक स्थिति की तरह यहां मतदान का स्वरूप भी अलग-अलग है।
घाटी में लोग आमतौर पर राजनीतिक पार्टी को वोट देते हैं किसी व्यक्ति विशेष को नहीं। लेकिन पवर्तीय इलाकों में तस्वीर अलग है। वहां उम्मीदवारों के व्यक्तित्व और वोटरों पर उनके असर के आधार पर वोट मिलते हैं। यही वजह है कि यहां कई निर्दलीय भी चुनाव जीतते रहे हैं। ईबो के मुताबिक पर्वतीय इलाके में मतदाता उम्मीदवारों को ध्यान में रख कर वोट देता है, पार्टी को नहीं।
वे मानते हैं कि खास कर इन चुनावों में यहां भी जातीय समीकरण हावी हैं।

