उद्धव ठाकरे के सीएम पद से इस्तीफा देने के बाद जब बीजेपी आलाकमान ने एकनाथ शिंदे को महाराष्ट्र के नए मुख्यमंत्री के तौर पर पेश किया तो सभी हैरत में थे। यहां तक कि खुद पूर्व सीएम देवेंद्र फडणवीस भी। तभी उन्होंने कहा कि वो इस सरकार का हिस्सा नहीं होंगे। उन्होंने कहा कि एकनाथ शिंदे की अगुवाई वाली सरकार में वो शामिल नहीं होने जा रहे। सरकार को मेरा बाहर से समर्थन रहेगा। लेकिन उसके तुरंत बाद वो डिप्टी सीएम बनने को तैयार हो गए। दरअसल इसके पीछे बीजेपी की एक रणनीति है।
बीजेपी 2024 को ध्यान में रखकर अपने पासे फेंक रही है। उसे पता है कि क्षेत्रीय दल कितने अहम हैं। एकनाथ शिंदे को सीएम की कुर्सी पर बिठाकर उसके साफ इशारा दिया कि वो छोटे सहयोगी दलों के लिए कुर्सी कुर्बान करने को तैयार है। इससे विपक्ष के उस आरोप की धार भी कुंद होगी जिसमें वो भाजपा को सत्तालोलुप बताता आ रहा है। शिंदे के सीएम बनने के बाद बीजेपी पर ये आरोप लगाना विपक्ष के लिए अब मुश्किल होगा।
हालांकि 2014 में सत्ता के शीर्ष पर पहुंचने के बाद मोदी-शाह की जोड़ी ने मिथकों को बदलने का काम किया। महाराष्ट्र में मराठा समुदाय को दरकिनार कर फडणवीस को सीएम बनाया गया। हरियाणा में जाटों को पीछे धकेलकर मनोहर लाल खट्टर को कुर्सी दे दी गई। जबकि झारखंड में रघुबर दास को सामने लाया गया। लेकिन ये फार्मूला कामयाब होता नहीं दिखा। हरियाणा में बीजेपी को सत्ता तक पहुंचने के लिए दुष्यंत चौटाला का हाथ थामना पड़ा तो झारखंड में सत्ता ही चली गई। महाराष्ट्र का हाल सामने है।
लिहाजा बीजेपी ने फिर से वर्चस्व वाले समुदायो को जोड़ने की रणनीति बनाई है। शिंदे मराठा हैं और भाजपा को पता है कि मराठा को दरकिनार कर सूबे की राजनीति में पैठ बनाना मुश्किल है। शिंदे को सीएम बनाने से शिवसेना की धार भी कुंद होगी, क्योंकि वो वहीं से निकले हैं। उद्धव ठाकरे को खत्म करने की सियासत शिंदे को आगे करके ही की जा सकती है। दूसरे सूबों को देखा जाए तो बीजेपी अब वर्चस्व वाले समुदायों के नेताओं पर भरोसा कर रही है। उत्तराखंड में पुष्कर सिंह धामी और कर्नाटक में बसवराज बोम्मई को इसी रणनीति के तहत कुर्सी मिली।
सूबे के नेता मानते हैं कि अब फडणवीस का सीएम बनना बहुत मुश्किल है। वो मोदी के तो करीब हैं पर शाह की गुडबुक में नहीं आते। 2024 के बाद उन्हें नितिन गडकरी की जगह केंद्र में मंत्री बनाया जा सकता है। वो बीजेपी के साईड लाइन क्लब के वो नए मेंबर हैं। उन्हें संघ की नजदीकी हासिल है पर लगता नहीं कि सूबे के मुखिया के तौर पर वो फिर से उबर पाएंगे।