झारखंड के गोड्डा जिले के राजाभीटा और मासपारा गांव में सड़क-बिजली और अस्पताल नहीं होने से बीमारों और पीड़ितों को इलाज के लिए कई किमी तक पैदल चलने के लिए मजबूर होना पड़ता है। पिछड़े इलाकों में आवागमन का कोई साधन नहीं है। बारिश में हालात और बुरे होते हैं। यह स्थिति सिर्फ राजाभीटा और मासपारा गांव का नहीं है, और भी कई गांव ऐसे ही हालात में हैं।

किस्मत के भरोसे हैं महिलाएं, बच्चे और बुजुर्ग  अक्सर इन्हें खाट पर बांस बांधकर चार लोग कंधे पर पांच-छह किमी तक ले जाते हैं। यह भी तय नहीं है कि कई किमी तक पहुंचने का दर्द सहने के बाद यह बच ही जाएं। अगर बच भी गए तो यह भी जरूरी नहीं कि दूरदराज के अस्पताल में इन्हें तत्काल इलाज मिल ही सके। गांवों में बिजली नहीं होने से शाम होते ही अंधेरा हो जाता है। इसलिए बीमार पड़ने या प्रसव वेदना होने पर सुबह होने का इंतजार किया जाना ही एकमात्र चारा है।

बारिश में तो दिन में भी चलना मुश्किल  गांव में सड़कें नहीं होने से बारिश के दौरान दिन में भी निकलना संभव नहीं हो पाता है। इससे बीमार या पीड़ित को घर में ही दर्द को सहन करना पड़ता है। इस तरह दर्द सहते-सहते बच गए तो ठीक है, नहीं बचे तो कुछ करने का उपाय नहीं है। उसे सहन करना ही पड़ता है।

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मोबाइल की रोशनी में हुआ बच्चे का जन्म  मासपारा के संथाल लखीराम हेम्ब्रेम बताते हैं, “दो महीने पहले वह अपनी गर्भवती पत्नी तालामणि मुर्मू को दर्द होने पर कई किमी तक पैदल ले गए। घडियाल सर्विस रोड पर एक वाहन मिला, उससे ब्लॉक कम्यूनिटी हेल्थ सेंटर ले गए। यहां पर डॉक्टर ने कहा कि अभी बच्चे का समय पूरा नहीं हुआ है, वापस ले जाओ, दर्द बढ़ेगा तो ले आना। मजबूर होकर हम उसी तरह घर लौट आए।” बताया कि डेढ़ महीने बाद उसने घर पर ही एक बेटे को जन्म दिया। बिजली नहीं होने से कहीं से एक मोबाइल लाकर उससे रोशनी कर प्रसव कराया गया।

सभी की किस्मत अच्छी नहीं होती  हेंब्राम के मुताबिक कुछ दिन पहले उसने बुखार से पीड़ित पड़ोसी के एक बच्चे को भी ऐसे ही वहां तक ले गया था। बच्चा बच गया लेकिन सभी लोग इतने भाग्यशाली नहीं हैं कि वह इस हालात में जिंदा रह सकें। डेढ़ साल पहले उसी गांव के बाबूलाल मरांडी ने अपने छह साल के बच्चे को खो दिया। उसे डायरिया और बुखार था। कई किमी दूर अस्पताल पहुंचने से पहले उसने दम तोड़ दिया। वापस घर आकर उसका अंतिम संस्कार कर दिया।