केंद्र सरकार देश भर में मौजूद डाकघरों के नेटवर्क को आधुनिक और सुविधाओं से लैस बनाने के चाहे जितने दावे करे पर जमीनी हकीकत एकदम उलट है। बुजुर्गों, पेंशनभोगियों और कम आमदनी वालों का ज्यादा वास्ता डाकघरों से ही पड़ता है। लेकिन नोटबंदी के दौरान डाकघर बचत बैंक अव्वल तो नकदी के दर्शन तक को तरस गए और अगर उन्हें थोड़ी बहुत नकदी दी भी गई तो दस, बीस और पचास व सौ रुपए के वे कटे-फटे नोट ही थमाए गए जो नष्ट करने के लिए रिजर्व बैंक को भेजे जाने थे।
वित्तमंत्री अरुण जेटली और पिछले संचार मंत्री रविशंकर प्रसाद डाक नेटवर्क को लेकर लंबे चौड़े दावे करते रहे। मसलन, यह कि डाकघर बचत बैंक आधुनिक सुविधाओं के बल पर अपने ग्राहकों को व्यवसायिक बैंकों से बेहतर सुविधाएं देंगे। सरकार इन्हें मिनी स्टोर का रूप देगी जहां लोगों को रोजमर्रा की जरूरत की चीजें उचित कीमत पर मिलेंगी। इससे लोगों को तो सुविधा होगी ही, डाकघरों की आमदनी भी बढ़ेगी। पर जमीनी हकीकत यह है कि व्यवसायिक और निजी बैंकों के चेक अब केंद्रीकृत क्लीयरिंग व्यवस्था के जरिए तेजी से क्लीयर होते हैं पर डाकघर बचत बैंक इस सुविधा से नहीं जुड़ पाया है। नतीजतन अगर कोई उपभोक्ता किसी को अपने डाकघर बचत बैंक खाते का चेक देता है तो व्यवसायिक बैंकों की केंद्रीयकृत क्लीयरिंग व्यवस्था उसे स्वीकार ही नहीं करती। ऐसे चेक आमतौर पर दस से पंद्रह दिन में क्लीयर हो पाते हैं।
जहां तक नोटबंदी का सवाल है, इसकी सबसे बुरी मार डाकघर बचत बैंक से जुड़े खाताधारकों पर पड़ रही है। चुनिंदा महानगरों को छोड़ दें तो बड़े शहरों तक में ज्यादातर डाकघरों ने ‘नो कैश’ की पट्टी स्थाई तौर पर अपने दरवाजों पर लटका रखी हैं। मेरठ, मुरादाबाद और मुजफ्फरनगर जैसे तीन अहम जिले एक ही डाक अधीक्षक के हवाले हैं। इन जिलों के वरिष्ठ डाक अधीक्षक उग्रसेन ने माना कि नकदी की किल्लत डाकघरों को सबसे ज्यादा झेलनी पड़ रही है। वजह है डाक विभाग की अपनी कोई अलग चेस्ट (नकदी रखने वाली चाकचौबंद सुरक्षा वाली बड़ी तिजोरी) ही नहीं है।
जबकि निजी और व्यवसायिक सभी बैंकों की अपनी अलग चेस्ट हैं और उन्हें रिजर्व बैंक से मुद्रा सीधे मिलती है। डाकघर बचत बैंक इस मामले में भारतीय स्टेट बैंक की मुख्य शाखा के मोहताज हैं जहां उनके साथ दोयम दर्जे का सलूक होता है। उग्रसेन ने अपनी पीड़ा बताई कि एक जिले में रोजाना औसतन दो करोड़ रुपए नकदी की मांग के विपरीत भारतीय स्टेट बैंक ने उन्हें दस लाख रुपए से ज्यादा कभी एक बार में दिए ही नहीं। इतनी रकम को साठ छोटे-बड़े डाकघरों में भेजने से होने वाली किल्लत का अनुमान कोई भी लगा सकता है। ऊपर से कटे-फटे पुराने नोट ही नहीं दस रुपए के सिक्कों के थैले तक उन्हें थमाए जा रहे हैं। ऐसे में वे सबको जरूरत के हिसाब से नकदी दे ही नहीं सकते। थोड़ी-थोड़ी नकदी देकर सबको संतुष्ट करने की कोशिश के अलावा उनके पास कोई विकल्प है नहीं।
डाकघरों में इंटरनेट सुविधा की हालत भी खस्ता है। एक बार सर्वर डाउन हो जाए तो दिनभर कोई सुध नहीं लेता। जरूरतमंद न रजिस्ट्री और स्पीडपोस्ट भेज पाते हैं और न अपने खाते से कोई लेन-देन कर पाते हैं। दिखावे को कुछ बड़े डाकघरों में एटीएम भी लगा दिए गए। पर वे शो-पीस ही बने हैं। मेरठ की मिसाल ताजा है। जहां शहर के दोनों मुख्य डाकघरों के बाहर इस साल मई में इलाके के भाजपा सांसद राजेंद्र अग्रवाल ने एटीएम का उद्घाटन कर खूब तालियां बटोरी थीं पर उद्घाटन के बाद एक दिन भी उनके दरवाजे ग्राहकों के लिए खुले ही नहीं।