कोल्ड्रिफ कफ सिरप से कई बच्चों की मौत के मामले सामने आने के बाद इस पर अलग-अलग राज्यों में बैन लगा दिया गया है। इस कफ सिरप का सेवन करने वाले बच्चों में से कुछ अपनी जिंदगी के लिए संघर्ष कर रहे हैं। नागपुर के सरकारी मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल के पीआईसीयू के बाहर नीलेश सूर्यवंशी बेचैनी से किसी उम्मीद की किरण की प्रतीक्षा में टहल रहे थे। उनका साढ़े तीन साल का बेटा मयंक अंदर पड़ा अपनी जिंदगी के लिए संघर्ष कर रहा था।
डॉक्टरों ने उन्हें पहले ही बता दिया था कि उनके बेटे की हालत गंभीर है। जब उनसे सवाल किया गया कि उन्होंने अपने बच्चे को अब तक बैन की गई कोल्ड्रिफ सिरप की कितनी मात्रा दी है, तो उन्होंने नीचे देखा और उनकी आखें छलग आईं। उन्होंने कहा, “हमारा बच्चा तो दवा ले भी नहीं रहा था। जहर को जबरदस्ती पिलाया है हमने।” मयंक के पिता एक खेतिहर मजदूर हैं। वह अब तक उसके इलाज पर 4-5 लाख रुपये से ज्यादा खर्च कर चुके हैं।
वह अपने बेटे को सबसे पहले 25 सितंबर को नागपुर लाए, उसे एक प्राइवेट हॉस्पिटल में भर्ती कराया और फिर उसे सरकारी अस्पताल में ट्रांसफर कर दिया। उन्होंने कहा कि मैंने सभी से पैसे मांगे हैं और इधर-उधर से कर्ज लिया है। एक और शोकाकुल परिवार अपनी बेटी के शव का इंतजार कर रहा है, उसे पोस्टमार्टम के लिए ले जाने का इंतजार कर रहा है। दो साल की जयुषा के पिता राजेश यदुवंशी, दुपट्टे में लिपटी उसकी नन्ही सी लाश को गोद में लेकर पोस्टमार्टम के लिए पीआईसीयू वार्ड से बाहर निकले।
उनके बगल में खड़े जयुषा के चाचा योगेश ने इंडियन एक्सप्रेस को बताया , “हम 25 सितंबर को जयुषा को नागपुर लाए थे। परासिया में उससे पहले, वह तीन दिनों से ज्यादा समय तक डॉ. सोनी के अस्पताल में भर्ती रही, बाद में उसे छुट्टी दे दी गई।” मंगलवार को कोल्ड्रिफ कफ सिरप के सेवन से दो बच्चों की मौत हो गई।
वेदांश पवार और जयुषा की नागपुर में हो गई मृत्यु
ढाई साल के वेदांश पवार और छोटी जयुषा दोनों की नागपुर में मृत्यु हो गई। नागपुर नगर निगम के चीफ मेडिकल ऑफिसर दीपक सेलोकर ने इंडियन एक्सप्रेस को बताया कि एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम की वजह से मध्य प्रदेश में 14 और महाराष्ट्र में 6 मौतें हुई हैं। डॉ. सेलोकर ने बताया कि वे अभी भी सभी मौतों को कोल्ड्रिफ कफ सिरप से नहीं जोड़ रहे हैं और इसे संदेह के तौर पर ही रख रहे हैं। उन्होंने कहा, “मध्य प्रदेश से आए मामलों में एक सामान्य कारक कफ सिरप था। लेकिन महाराष्ट्र के मामलों में इसकी पहचान नहीं हुई है।” डॉ. सेलोकर ने बताया कि एईएस के कुल 36 मामले अब तक दर्ज किए जा चुके हैं।
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जीएमसी नागपुर के शिशु रोग विभाग के प्रोफेसर डॉ. मनीष तिवारी ने इंडियन एक्सप्रेस को बताया, “अब पोस्टमार्टम अनिवार्य कर दिया गया है। हमने परिजनों को यह विकल्प दिया था कि अगर उन्हें बाद में कोई मुआवजा मिलेगा, तो उन्हें जहर के सबूत दिखाने होंगे। हालांकि, शुरुआत में कोई भी इसके लिए राजी नहीं हुआ। अब हमने इसे अनिवार्य कर दिया है।” उन्होंने आगे बताया कि जयुषा के मामले में, भर्ती होने पर उनका क्रिएटिनिन 4.4 था और यूरिया 62 था। यह सामान्य से काफी ज्यादा था। यह 20 से नीचे होना चाहिए। उन्हें एक प्राइवेट हॉस्पिटल से जीएमसी रेफर किया गया था। फोमेपीजोल से पेसेंट में कोई सुधार नहीं दिखा।
डॉ. आशीष लोथे ने ने क्या बताया?
शिशु रोग विभाग के प्रोफेसर डॉ. आशीष लोथे ने कहा, “ऐसा इसलिए होता है क्योंकि डायथिलीन ग्लाइकॉल ब्रेन में चिपक जाता है, यह डायलिसिस के माध्यम से शरीर से बाहर नहीं निकल पाता। यह टीसू से चिपक जाता है और एक बार चिपक जाने के बाद इसे हटाया नहीं जा सकता। वह (जयुषा) गहरे कोमा में थी और उससे बाहर नहीं आ पाई।” डॉ. आशीष लोथे ने कहा, “इसका मारक फोमेपिजोल है, लेकिन यह पूरी तरह कारगर नहीं है। जहर का लेवल इतना ज्यादा है कि इसकी कोई सिद्ध दवा नहीं है। मृत्यु दर लगभग 100 प्रतिशत है।”
जब उनसे पूछा गया कि वर्तमान में भर्ती बच्चों के बारे में उनकी क्या राय है, तो डॉ. तिवारी ने कहा, “हम उम्मीद लगाए बैठे हैं।” डॉ. तिवारी ने आगे कहा, “सच कहूं तो, इस सिरप में टॉक्सिक लेवल 48.6 प्रतिशत पाया गया। यह टॉक्सिक लेवल से लगभग 500 से 600 गुना ज्यादा है। बच्चों को कई खुराकें दी गईं सिर्फ 5 मिलीलीटर की एक खुराक ही जानलेवा साबित हो सकती थी।”
डॉक्टर तिवारी ने कहा, ‘”हमें शुरू में ही बता दिया गया था कि यह एईएस है। पहले दो-तीन मरीज बहुत देर से आए थे, इसलिए उनमें पहले से ही शुद्ध एन्सेफैलोपैथी विकसित हो चुकी थी और वे कोई प्रतिक्रिया नहीं दे रहे थे। जब हम उन मरीजों को लेकर आए, तो हमें भी शुरू में कुछ शक नहीं हुआ। हालांकि, हमारे पास आए चौथे मरीज ने एक खास, असामान्य इतिहास बताया बच्चा पेशाब नहीं कर रहा था, होश में था और फिर एन्सेफैलोपैथी में चला गया।”
तेज मस्तिष्क ज्वर (acute encephalitis) में मरीज को पहले बुखार आता है और ब्रेन पर असर पड़ता है और आखिर में शरीर के कई अंग जैसे कि किडनी भी खराब हो जाते हैं। हालांकि, इस मामले में स्थिति थोड़ी उलट थी। पहले किडनी को नुकसान पहुंचा और ब्रेन में लक्षण दो या तीन दिन बाद विकसित हुए। डॉ. तिवारी ने कहा, “इसके बाद हमने दवाओं के नुस्खों की जांच की और पाया कि ज्यादातर मरीजों का इलाज डॉ. सोनी ने किया था।”
कोई भी मरीज पूरी तरह से ठीक नहीं हुआ
डॉ. तिवारी ने आगे कहा, “आखिरकार एईएस को लेकर कुछ भ्रम की स्थिति पैदा हो गई। कुछ बच्चों को छुट्टी दे दी गई और वे घर चले गए, जिससे लोगों को लगा कि ‘यह (डीईजी) और वह (एईएस) एक ही हैं,’ लेकिन ये डीईजी के मामले नहीं हैं। डीईजी पोइजनिंग से पीड़ित किसी भी व्यक्ति का अभी तक इलाज नहीं हुआ है।” अब जीएमसी में एईएस के लिए तीन बच्चों का इलाज किया जा रहा है। परासिया के हर्ष यदुवंशी को सीआरआरटी मशीन पर इलाज जारी रखने के लिए एम्स, नागपुर में ट्रांसफर किया जा रहा है। डॉ. तिवारी ने बताया कि एक बार मशीन लग जाने के बाद मरीज को 72 घंटे तक इससे हटाया नहीं जा सकता।
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