मोदी सरकार के कृषि कानूनों के वापस लेने के फैसले को सियासी नजरों से भी देखा जा रहा है। खासकर अगले साल होने वाले यूपी विधानसभा चुनाव से इसे जोड़ा जा रहा है।
दरअसल पश्चिमी यूपी की 110 विधानसभा सीटों में से 100 सीटों पर किसानों का दबदबा है। इन इलाकों में किसान आंदोलन का प्रभाव भी काफी है। खुद किसान आंदोलन के प्रमुख चेहरों में से एक राकेश टिकैत इन्हीं इलाकों से आते हैं। किसान आंदोलन के बाद से इन इलाकों में बीजेपी का काफी विरोध हो रहा था। जबकि पिछले चुनाव में भाजपा का यहां प्रदर्शन काफी बेहतर रहा था।
गणतंत्र दिवस के दिन जब ट्रैक्टर परेड में हिंसा हुई तो ऐसा लगा कि ये आंदोलन अब खत्म हो जाएगा। सरकार भी आंदोलन को खत्म करने की तैयारी करने लगी थी, लेकिन तभी भारतीय किसान यूनियन के प्रवक्ता राकेश टिकैत के आंसूओं ने आंदोलन में जान फूंक दी। अभी तक मुख्य रूप से आंदोलन में पंजाब के किसानों का दबदबा था, लेकिन टिकैत के आंसूओं ने पश्चिमी यूपी के किसानों में आक्रोश भर दिया और आंदोलन एक बार फिर से खड़ा हो गया।
राकेश टिकैत के इन आंसूओं से वो जाट समुदाय भी आक्रोश में भर गया जिसने 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को जमकर वोट दिए थे। हाल ये हुआ कि ये आंदोलन पश्चिमी यूपी से निकलकर धीर-धीरे पूरे उत्तरप्रदेश में फैलने लगा। कुछ सर्वे में भी भाजपा को नुकसान की बात कही जाने लगी। इसीलिए ये कहा जा रहा है कि सरकार ने कृषि कानूनों पर अपने कदम वापस ले लिए।
पश्चिमी यूपी के 14 जिलों में 71 विधानसभा सीटों पर जाट महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसी समुदाय से टिकैत आते हैं। भाजपा ने 2017 के विधानसभा चुनाव में 51 पर जीत हासिल की थी। कभी इस इलाके में राष्ट्रीय लोक दल की तूती बोलती थी, जाट समुदाय इसी पार्टी को वोट देते थे, लेकिन 2017 में उसे सिर्फ एक सीट मिली वो भी बाद में भाजपा में शामिल हो गए। तब समाजवादी पार्टी ने 16, कांग्रेस ने दो जबकि बसपा और रालोद ने एक-एक सीट जीती थी।
इस बार, रालोद-सपा गठबंधन किसान आंदोलन के कारण भाजपा की सीटों पर सेंध लगाने की उम्मीद कर रहा है। बीजेपी के स्थानीय नेतृत्व भी इस कानून वापसी के फायदे और नुकसान पर दो धड़ों में बंटा है। कुछ नेताओं का जहां मानना है कि इससे किसानों की भाजपा के प्रति नाराजगी कम होगी, वहीं कुछ का कहना है कि जो नुकसान होना था वो हो चुका है।