पांच बार मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित करके चुनाव लड़ने के बावजूद दिल्ली की सत्ता से बाहर रही भाजपा इस बार दिल्ली में केवल प्रधानमंत्री का नाम आगे करके चुनाव लड़ने की तैयारी में है। सूत्रों के मुताबिक, भाजपा का एक वर्ग अभी से इसीलिए सक्रिय है। उसका मानना है कि किसी नेता को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित करने पर उस नेता के विरोधी तो घर बैठ जाते हैं या ठीक से काम नहीं कर पाते। अन्यथा यह कैसे संभव था कि 2015 के विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री की उम्मीदवार किरण बेदी भाजपा के गढ़ माने जाने वाली कृष्णा नगर सीट से खुद अपना चुनाव भी नहीं जीत पार्इं। दिल्ली में भाजपा की समस्या है कि वह 1998 में दिल्ली सरकार से बाहर हुई, तब से वह कभी विधानसभा चुनाव नहीं जीत पाई। इसका एक बड़ा कारण भाजपा का वोट समीकरण भी है। भाजपा खास वर्ग की पार्टी मानी जाती है। गैर भाजपा मतों का ठीक से विभाजन होने पर ही भाजपा विधानसभा या नगर निगम चुनाव जीत पाती है। 1993 में दिल्ली विधानसभा के चुनाव में उसे करीब 43 फीसद वोट मिले तब वह सत्ता में आई। उसके बाद उसका वोट औसत लोकसभा चुनावों के अलावा कभी भी 36-37 फीसद से बढ़ा ही नहीं।

इस बार के लोकसभा चुनाव में भाजपा को रेकॉर्ड 56.6 फीसद वोट आए है, 2014 के लोकसभा चुनाव में भी वह दिल्ली की सभी सातों सीटें जीती थी और उसे 46.4 फीसद वोट मिले थे। 2015 के विधानसभा चुनाव में उसे 32 फीसद वोट तो मिले लेकिन सीटें तीन ही मिल पाई। आम आदमी पार्टी (आप) ने 54 फीसद वोट के साथ 67 सीटें जीत ली। माना जाता है कि उस चुनाव में ‘आप’ के ‘पानी माफ और बिजली बिल हाफ’ के नारे का भारी असर हुआ और कांग्रेस के माने जाने वाले वोटरों के साथ-साथ भाजपा का भी निम्न मध्यम वर्ग समर्थक ‘आप’ के साथ चला गया। भाजपा ने वोट में विस्तार के लिए नवंबर 16 में बिहार मूल के लोकप्रिय कलाकार मनोज तिवारी को प्रदेश अध्यक्ष बना कर पूर्वांचल के प्रवासियों को अपने पक्ष में करने का प्रयास किया और वह 2017 के नगर निगमों के चुनाव में दिखा भी। तिवारी ने 32 बिहार मूल के उम्मीदवारों को टिकट दिलवाया, जिसमें 20 चुनाव जीत गए। अस्सी के दशक से दिल्ली के राजनीतिक समीकरण में बदलाव की शुरुआत तेजी से हुई और उसके तीन दशक बाद को दिल्ली की 70 विधानसभा सीटों में से 50 में पूर्वांचल के प्रवासी 20 से 60 फीसद तक हो गया हैं। 2015 के विधानसभा चुनाव और 2017 के नगर निगम चुनाव ने साबित कर दिया कि अब दिल्ली में रहने वाले ज्यादातर प्रवासी दिल्ली के मतदाता बन गए हैं। कयास लगाए जा रहे हैं कि मनोज तिवारी मुख्यमंत्री का उम्मीदवार बनाए जाने पर लाभ होगा लेकिन दिल्ली भाजपा का एक वर्ग इनका लगातार विरोध कर रहा है।

दिल्ली में भाजपा लंबे समय तक मूलरूप से पाकिस्तान से आए लोगों और वैश्य बिरादरी की पार्टी मानी जाती थी। लंबे समय तक जनसंघ (अब भाजपा) का नेतृत्व पंजाबी नेता करते थे केदारनाथ साहनी, मदन लाल खुराना और विजय कुमार मल्होत्रा के बाद तो भाजपा में पंजाबी नेताओं का अकाल पड़ गया, जो नए नेता सक्रिय भी हुए उनको पार्टी में वैसा स्थान मिला नहीं। वैश्य नेताओं में ही दावेदारी ज्यादा दिख रही है। डॉ हर्षवर्धन के दूसरी बार केंद्र में मंत्री बनने के बाद विधानसभा में विपक्ष के नेता विजेंद्र गुप्ता और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष विजय गोयल ही मनोज तिवारी के अलावा प्रमुख दावेदार माने जाते हैं। दिल्ली में विधानसभा बनवाने में भाजपा नेता मदन लाल खुराना का सबसे ज्यादा योगदान था। बावजूद इसके उनके लगातार प्रयास के बावजूद 1993 के चुनाव के दैरान वे प्रदेश अध्यक्ष थे फिर भी बड़ी कठिनाई से चुनाव प्रचार के दैरान पार्टी नेतृत्व ने उनकी अगुआई में चुनाव लड़ने की बात कही और वे चुनाव परिणाम के बाद मुख्यमंत्री बने। हवाला डायरी में नाम आने पर उन्होंने फरवरी 1996 में मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिया तब साहिब सिंह वर्मा मुख्यमंत्री बने। हवाला के आरोप से पाक साफ होने के बावजूद लंबे विवाद के बावजूद पार्टी ने उनके बजाए सुषमा स्वराज को दिल्ली का मुख्यमंत्री बनाया और 1998 के चुनाव में 34 फीसद वोट के साथ 15 सीटें मिली।

2007 में नगर निगम चुनाव जीताने वाले प्रदेश अध्यक्ष डॉ हर्षवर्धन को 2008 के विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री का स्वभाविक उम्मीदवार मान लिया गया था तो पार्टी ने आखिरी समय में विजय कुमार मल्होत्रा को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार बना दिया। 2013 के विधानसभा चुनाव के समय विजय गोयल प्रदेश अध्यक्ष थे उन्हें राजस्थान से राज्य सभा सदस्य बनाकर डॉ हर्षवर्धन के भाजपा ने मुख्यमंत्री का उम्मीदवार बनाया तो चुनाव में भाजपा को करीब 34 फीसद वोट के साथ 32 सीटें मिली। भाजपा के ज्यादातर विधायक चाहते थे कि कांग्रेस के छह विधायकों के साथ भाजपा सरकार बना ले लेकिन डॉ हर्षवर्धन समेत भाजपा के ही अनेक नेता इसके खिलाफ हो गए। दिल्ली में राष्ट्रपति शासन हो गया और फरवरी, 2015 के विधानसभा चुनाव में ‘आप’ प्रचंड बहुमत से सरकार में आ गई। माना जा रहा है कि पार्टी को मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित करने से लाभ के बजाय नुकसान ही ज्यादा होता है इसलिए पार्टी के नेताओं का एक वर्ग बिना मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित किए प्रधानमंत्री के नाम पर चुनाव लड़ने की वकालत कर रहा है।