Shiv Sena 56 Years Journey in Politics: शिवसेना ने अपने 56 सालों के इतिहास में कई सियासी दलों के साथ गठबंधन किए। इस दौरान भारतीय जनता पार्टी के साथ सबसे ज्यादा लोकप्रिय सहयोगी के तौर पर देखा गया है। यही वजह है कि कांग्रेस और एनसीपी के साथ गठबंधन करने के बाद शिवसेना के सियासी करियर को उसके प्रस्थान के रूप में देखा जाता है। शुरुआत में शिवसेना पूरी तरह से कम्युनिस्ट विरोधी पार्टी थी और साल 1967 के ठाणे नगर निगम चुनावों में 40 में से 17 सीटें जीतकर सियासत में सफलता की ओर कदम बढ़ाया।

इसके एक साल बाद शिवसेना ने प्रजा सोशलिस्ट पार्टी (PSP) के साथ गठबंधन किया। इस गठबंधन ने बॉम्बे के लिए हुए निकाय चुनावों में (जैसा कि उस समय मुंबई कहा जाता था) 121 में से 42 सीटें जीती थीं। पीएसपी की स्थापना 1952 में हुई थी जब जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व वाली सोशलिस्ट पार्टी का जेबी कृपलानी के नेतृत्व वाली किसान मजदूर प्रजा पार्टी में विलय हो गया था। पीएसपी की विचारधारा और इस तथ्य को देखते हुए कि यह बाद में जनता पार्टी के कई गुटों में टूट जाएगा, यह शिवसेना के लिए एक आश्चर्यजनक विकल्प था।

साल 1970 में टूट गया शिवसेना-पीएसपी का गठबंधन

शिवसेना और पीएसपी का ये गठबंधन ज्यादा दिनों तक नहीं चल सका और साल 1970 में जब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के विधायक की हत्या में कथित भूमिका के लिए पीएसपी के तत्कालीन मुखिया मधु दंडवते ने जब शिवसेना की आलोचना की तो दोनों दलों के रिश्तों में खटास आ गई। इसके बाद साल 1973 के बॉम्बे निकाय चुनावों में सहयोगियों की तलाश करते हुए रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के साथ हाथ मिलाया और इस गठबंधन ने 39 सीटों पर जीत हासिल की।

साल 1974 में कांग्रेस के साथ आई शिवसेना

वहीं इसके बाद साल 1974 में मध्य मुंबई सीट के लिए लोकसभा उपचुनाव में शिवसेना ने कांग्रेस उम्मीदवार रामराव आदिक को अपना समर्थन दिया। जबकि आदिक सीपीआई उम्मीदवार रोजा देशपांडे से हार गए, लेकिन इससे शिवसेना और कांग्रेस की समझ पर कोई असर नहीं पड़ा। इसके बाद साल 1977 में बाल ठाकरे ने बृहन्मुंबई नगर निगम (बीएमसी) में मेयर चुनाव के लिए कांग्रेस उम्मीदवार मुरली देवड़ा की बोली का समर्थन किया। शिवसेना ने 1977 के लोकसभा चुनाव के साथ-साथ 1978 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में भी कांग्रेस का समर्थन किया। हालांकि इस दौरान शिवसेना ने लोकसभा चुनाव नहीं लड़ा, लेकिन इसने विधानसभा चुनाव के लिए प्रतियोगियों को खड़ा किया, जिनमें से कोई भी उम्मीदवार जीत हासिल नहीं कर पाया।

साल 1980 में शिवसेना ने छोड़ा कांग्रेस का हाथ

शिवसेना और कांग्रेस का यह गठबंधन 1980 के विधानसभा चुनावों में भी जारी रहा। इसके साथ ही शिवसेना ने कांग्रेस के लिए अपना कोई उम्मीदवार खड़ा किए बिना प्रचार किया और महाराष्ट्र विधान परिषद में तीन नामांकन के साथ पुरस्कृत किया गया। 1982-83 के पूरे मुंबई में कपड़ा मिल मजदूरों की हड़ताल की पृष्ठभूमि में यह रिश्ता अंततः स्थायी रूप से टूट गया। शिवसेना इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि कांग्रेस की हड़ताल से निपटने से मध्य मुंबई में उसके जनाधार का विरोध हो सकता है। इस वजह से शिवसेना ने कांग्रेस के साथ गठबंधन खत्म करने का निर्णय लिया।

साल 1980 में शिवसेना ने मिलाया बीजेपी से हाथ

इस बीच साल 1980 में जनसंघ भारतीय जनता पार्टी के रूप में नई पार्टी बन चुकी थी और तब तक शिवसेना बीजेपी के करीब आने लगी थी। 1984 के लोकसभा चुनावों में शिवसेना ने दो लोकसभा सीटों पर बीजेपी के साथ गठबंधन किया था और दोनों सीटें वो हार गई। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए चुनाव में बीजेपी ने ही पूरे देश में सिर्फ दो सीटें जीती थीं। एक साल बाद साल 1985 में महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में शिवसेना बिना किसी गठबंधन के अकेले ही मैदान में उतर गई। इस बार शिवसेना को जिसे शरद पवार ने बाहर से संचालित किया था। इस विधानसभा चुनाव में शिवसेना का सिर्फ एक उम्मीदवार जीता जिसका नाम था छगन भुजबल।

मुंबई की बड़ी ताकत बन चुकी थी शिवसेना

लेकिन शिवसेना ने उसी साल बीएमसी चुनाव में भी अकेले ही मोर्चा संभाला और ये साबित किया कि मुंबई में वो अकेले ही एक बड़ी ताकत बन चुकी थी। शिवसेना ने इस साल बीएमसी चुनाव में 139 सीटों में से 74 सीटों पर कब्जा किया। इसके बाद साल 1989 में भारतीय जनता पार्टी के राम मंदिर आंदोलन के मद्देनजर हिंदुत्व को एक राजनीतिक विचारधारा के रूप में शिवसेना को एक नया सहयोगी मिला जिसके साथ शिवसेना ने लोकसभा और विधानसभा चुनाव दोनों में गठबंधन किया। बीजेपी के साथ गठबंधन शिवसेना की राजनीति के लिए एक टर्निंग प्वाइंट साबित हुआ। इसके तुरंत बाद साल 1992-93 में शिवसेना पर बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद हिंदू-मुस्लिम दंगों और मुंबई सीरियल विस्फोटों के बाद हुई हिंसा में प्रमुख मास्टरमाइंड होने का आरोप लगाया गया।

2014-15 तक चला शिवसेना-बीजेपी का गठबंधन

शिवसेना-बीजेपी गठबंधन सितंबर 2014 तक 15 साल तक चला। उस वर्ष की शुरुआत में भाजपा ने मोदी लहर पर सवार होकर केंद्र में भारी बहुमत के साथ सत्ता हासिल की थी, जबकि 2012 में बाल ठाकरे की मृत्यु के बाद शिवसेना खुद कमजोर हो गई थी। 29 सितंबर 2014 को तत्कालीन बीजेपी नेता एकनाथ खड़से ने उद्धव ठाकरे को फोन करके एक धमाकी देते हुए कहा था कि बीजेपी अगला विधानसभा चुनाव अकेले लड़ेगी। विधानसभा चुनावों के बाद दोनों पक्षों ने फिर से हाथ मिलाया लेकिन उनका रिश्ता फिर कभी पहले जैसा नहीं रहा।

अंधेरी उपचुनाव में नए सहयोगियों के साथ मैदान में होगी शिवसेना

साल 2019 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के परिणामों के बाद के दिनों में सत्ता के बंटवारे पर असहमति ने शिवसेना को बीजेपी के खेमे से दूर कर दिया और शिवसेना ने कांग्रेस-एनसीपी के साथ गठबंधन कर लिया और तब से वो वहीं बनी है। तब से शिवसेना ने एक भीषण विभाजन देखा है, जिसे बीजेपी ने बनाया शिवसेना ने सत्ता भी गवां दी अब अंधेरी उपचुनाव में शिवसेना पहली बार अपने नए सहयोगियों के साथ चुनाव में उतरेगी।