उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में शानदार जीत के भरोसे और दिल्ली भाजपा के नए अध्यक्ष मनोज तिवारी के नाच-गान और लतीफेबाजी के बूते भाजपा 23 अप्रैल को होने वाले दिल्ली नगर निगम चुनावों को जीतने की आस लगाए है। कभी मुद्दों और सिद्धांतों की बात करने वाली भाजपा ने केवल जीत के लिए अपने सभी 156 निगम पार्षदों को फिर से चुनाव नहीं लड़वाने का फैसला किया है। कहने को निगम चुनाव अभियान की शुरुआत भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने 25 मार्च को रामलीला मैदान से की, लेकिन शुक्रवार को दिल्ली भाजपा अध्यक्ष तिवारी ने एक चुनावी गीत – भाजपा दिल… और भाजपा के पहले पोस्टर-नए चेहरे, नई ऊर्जा, नई उड़ान-दिल्ली मांगे कमल निशान, को जारी करके चुनाव प्रचार का रंगारंग आगाज किया। गीत में वे और कुछ अन्य गायक शामिल हैं।
बहरहाल भाजपा ने विधानसभा चुनाव की तरह मान लिया है कि नए चेहरों को लाने से चुनाव आसानी से जीता जा सकता है। जबकि उनके सामने विधानसभा चुनाव की नजीर सामने है, जिसमें आखिरी समय मुख्यमंत्री उम्मीदवार बनाई गई किरण बेदी खुद अपना चुनाव तक नहीं जीत पाईं थीं। भाजपा को 70 सीटों वाली विधानसभा में केवल तीन सीटें मिलीं थीं।
भाजपा की दिल्ली में की जा रही राजनीति आम जन के समझ में नहीं आ रही है। 2013 के विधानसभा चुनाव में भाजपा 32 सीटें लेकर सबसे बड़ी पार्टी बनी थी। सिद्धांतों की बात करते हुए उसने बहुमत न होने पर सरकार नहीं बनाने का फैसला किया और पहली बार चुनाव लड़ने वाली आम आदमी पार्टी ने 28 सीटें लेकर कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाई। वह सरकार महज 49 दिन चली। 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की भारी सफलता ने उसके विधायकों को कांग्रेस के एक धड़े के साथ सरकार बनाने का रास्ता दिखाया, पर फैसला न ले पाने के कारण न तो सरकार बनी और न ही हरियाणा आदि राज्यों के साथ चुनाव हुए। भाजपा नेतृत्व माने बैठा था कि जब भी चुनाव होगा उसकी जीत होगी। इसी अति आत्मविश्वास ने उसे फरवरी 2015 के चुनाव में पराजय दिलाई। लेकिन पार्टी नेतृत्व उसके बाद भी गंभीर नहीं हुआ और एक निगम पार्षद सतीश उपाध्याय को प्रदेश की बागडोर सौंप दी गई। जिस दिन से वे अध्यक्ष बने, उसी दिन से ही उनके हटने की चर्चा शुरू हुई और इसी में समय निकलता गया। मौका देखकर भाजपा ने लोकसभा चुनावों से ठीक पहले आए भोजपुरी गायक मनोज तिवारी को उत्तरपूर्व दिल्ली से चुनाव लड़वा दिया। मोदी लहर में दिल्ली की सातों सीटें भाजपा को मिली थीं।
अचानक निगम चुनावों से पहले बीते साल नवंबर में मनोज तिवारी को प्रदेश की बागड़ोर सौंप दी। दिल्ली भाजपा का ही नहीं, जनसंघ का भी गढ़ रहा है। विभाजन के बाद भारत आए पंजाबी और सिंधी मूल के लोग और हरियाणा, उत्तर प्रदेश से आए वैश्य भाजपा के मूल वोटर माने जाते रहे हैं। उनके अलावा सरकारी कर्मचारी, मध्यम वर्ग के बूते भाजपा बार-बार दिल्ली को जीतती रही है। वक्त के साथअब दिल्ली का भूगोल बदल गया है। इस नाते नए समीकरण बने हैं और पूर्वांचल के प्रवासियों की दिल्ली की राजनीति में बड़ी हिस्सेदारी बढ़ी है। उन पर पहले कांग्रेस का और बाद में आप का असर ज्यादा रहा है। जाहिर है, उनको जोड़कर अपना वोट बैंक बढ़ाने के लिए मनोज तिवारी को दिल्ली की बगडोर सौंपी गई है जिनका संगठन का कोई अनुभव नहीं है। खतरा यही दिख रहा है कि उनके प्रदेश अध्यक्ष बनने से नाराज भाजपा के परंपरागत समर्थक किसी और को समर्थन न दे डालें। दूसरे, भाजपा ने इस चुनाव में अनोखा प्रयोग अपने मौजूदा पार्षदों को टिकट न देने का किया है। इससे दिल्ली भाजपा के जमे-जमाए कार्यकर्ता नाराज हैं। उन्हें चुनाव के काम में लगाना पार्टी और मनोज तिवारी दोनों के लिए चुनौती होगी।
दिल्ली में ही भाजपा और जनसंघ का स्थापना हुई है। इस पार्टी की तीसरी और चौथी पीढ़ी के नेता दिल्ली में आसानी से मिल जाते हैं। उन्हें एक नए नेता की अगुवाई में सक्रिय करवाना कठिन है। यह सही है कि तिवारी की लोकप्रियता भोजपुरी गायक और अभिनेता के रूप में है, लेकिन उनकी पहचान राजनीति में उस तरह से नहीं बन पाई है। इनसे ज्यादा तो देश की पहली महिला आइपीएस अधिकारी किरण बेदी की लोकप्रियता थी। यह सही है कि मनोज तिवारी ने इन पांच महीनों में दिल्ली को जानने की कोशिश की है, लेकिन कहा जाता है कि जनवरी में प्रदेश टीम की घोषणा तक उनकी गैरहाजिरी में की गई। वे दिल्ली अध्यक्ष बनने पर भी देश भर में भाजपा के मंचों पर गीत गाते रहे, जैसे पहले वे चुनाव में गाते रहे हैं। उनसे आम कार्यकर्ताओं की दूरी अब भी बनी हुई है। वे अपने हर कार्यक्रम में अपने को अति व्यस्त दिखाने की कोशिश करते हैं। ध्यान रहे, अगर केवल गाना गाने से चुनाव जीता जाता तो मनोज तिवारी सपा के टिकट से भी चुनाव जीत गए होते। संभव है वे दिल्ली में कुछ समय बाद अपने अनुकूल माहौल बना लें लेकिन तब तक निगम चुनाव हो चुके होंगे और अगर भाजपा के पक्ष में नताजे न आए तो आगे उनकी राजनीति कठिन हो जाएगी। लेकिन विपरीत हालात में भी वे चुनाव जीत गए तो उनका राजनीतिक कद ज्यादा बढ़ जाएगा।

