बिहार विधानसभा चुनाव में तेजस्वी यादव का अति आत्मविश्वास ही महागठबंधन को ले डूबा। यह अति आत्मविश्वास मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार बनने से लेकर चुनाव के बाद 18 नवंबर को शपथ लेने तक के एलान में दिखाई दिया। सबको सरकारी नौकरी देने व महिलाओं के खातों में 30 हजार भेजने के वादे के बाद वे आश्वस्त हो गए कि जीत महागठबंधन की ही होगी।
तेजस्वी ने खुद को मुख्यमंत्री और राहुल गांधी के प्रधानमंत्री बनने तक की भविष्यवाणी कर दी, हालांकि कांग्रेस नेता राहुल गांधी की तरफ से तेजस्वी के मुख्यमंत्री बनने की बात नहीं कही गई। आति आत्मविश्वास में ताबड़तोड़ रैलियों और सभाओं के बीच भूल गए कि कुछ ऐसे वादे भी कर दिए जिसे पूरा करना आसान नहीं था।
इन्हें लेकर जनता में पैदा हुए अविश्वास और नीतीश सरकार की योजनाओं की सफलता के सामने राजद के तमाम वादे भी नाकाफी साबित हुए। इससे न केवल राजद बल्कि तमाम घटक दलों के प्रदर्शन का ग्राफ भी 2020 विधानसभा चुनाव से नीचे खिसक गया।
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महागठबंधन में सीट बंटवारे को लेकर भी अंतिम समय तक फैसला नहीं हो सका। इसके उलट राजग में सभी दल एकजुट दिखे। जैसे जैसे चुनाव आगे बढ़ता गया घटक दल भी अपने अपने तरीके से चलने लगे। प्रचार के दौरान भी इसका असर दिखा। 11 सीटों पर दोस्ताना मुकाबले से मतदाताओं में पैदा हुए संशय से भी सियासी खेल बिगड़ गया।
राष्ट्रीय जनता दल (राजद) ने अपनी घोषणा पत्र में प्रदेश के ढाई करोड़ में प्रत्येक परिवार को एक सरकारी नौकरी, माई बहन मान योजना के तहत प्रत्येक महिला को ढाई हजार रुपये, जीविका दीदियों को स्थायी करने और 200 यूनिट निशुल्क बिजली का वादा कर दिया। इनमें से कुछ घोषणाएं ऐसी रहीं जो नीतीश सरकार की कल्याणकारी योजनाओं के सामने मतदाताओं को लुभाने में नाकाम रहीं। योजनाओं को सिरे चढ़ाने के लिए राशि और व्यवहार्यता को देखते हुए भी मतदाताओं की बेरुखी का राजद को सामना करना पड़ा।
रोजगार के मुद्दे पर तेजस्वी यादव ने कुछ हद तक युवाओं को अपनी तरफ से आकर्षित किया भी। लेकिन, राजग नेताओं की तरफ से जंगलराज को लेकर लगातार किए जा रहे वार से खुद को दूर रखने में भी तेजस्वी की तमाम कोशिशें नाकाफी साबित हुईं और इसका असर भी नतीजे पर पड़ा।
एमवाइ समीकरण भी बिगड़ा
मुस्लिम-यादव समीकरण को साधने में पीछे रहने का असर भी चुनावी नतीजे पर साफ तौर पर दिख रहा है। राजद के नेताओं ने सत्ता में आने पर वक्फ बिल को फाड़ देने की बयान से मुसलिम मतदाताओं को साधने की कोशिश की गई, लेकिन इससे यादव मतदाताओं की बेरुखी बढ़ी।
प्रदेश में यादवों की आबादी करीब 14 फीसद है और राजद ने इस जाति के एक तिहाई से अधिक उम्मीदवारों को उतारा भी लेकिन एमवाइ समीकरण को साधने की कोशिश भी नाकाम रही और दोनों के बिफरने का पार्टी को नुकसान हुआ। तेजस्वी अपने दल राजद के कोर वेट बैंक एमवाइ समीकरण के दायरे को बढ़ाने में सफल नहीं हो सके, कांग्रेस, वामदल व वीआइपी के आने के बावजूद सामाजिक समीकरण में तेजस्वी विश्वास नहीं जीत सके।
जंगलराज के सामने फीकी पड़ी जनसभाएं
तेजस्वी यादव ने रोजाना औसतन 10 से 15 रैलियां और जनसभाएं की। जंगलराज और घुसपैठिए के मुद्दे पर राजग के निशाने से खुद को बचाने में कामयाब नहीं हो सके। प्रचार के दौरान वादों को बार-बार पेश किया गया, लेकिन मतदाताओं को यह विश्वास नहीं हो सका कि इनमें कितने वादे पूरे हो सकेंगे।
तेजस्वी यादव के परिवार में विवादों के बाद महागठबंधन में घटक दल भी चुनाव के दौरान अलग थलग दिखे। इससे जनता में पैदा हुए अविश्वास से भी बेरुखी ने राजद समेत महागठबंधन के तमाम घटकों को नुकसान पहुंचााय। ताजा आंकड़े भी बताते हैं कि राजद, 2020 में 74 सीट की तुलना में काफी पीछे चली गई।
पिछले चुनाव में सर्वेश्रेष्ठ प्रदर्शन कर चुके भाकपा (माले) का भी गिरा ग्राफ
महागठबंधन के अहम घटक भाकपा (माले) लिबरेशन से भी इस बार कोई खास प्रदर्शन नहीं रहा। पार्टी ने 2020 विधानसभा चुनाव में 12 सीटें जीतकर प्रदेश में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने वाली पार्टी बन गई थी, लेकिन इस बार अपनी मौजूदा सीटें बचाने में पूरी तरह कामयाब नहीं हो सके।
महागठबंधन के उपमुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार और विकासशील इंसान पार्टी (वीआइपी) प्रमुख मुकेश सहनी ने चुनाव मैदान में नहीं उतरे, जिससे जनता की बेरुखी का सामना करना पड़ा। खुद को मल्लाह का नेता बताकर भी वीआइपी नेता के लिए मुश्किलें बढ़ गई। वाम दलों के गढ़ वाले क्षेत्र में चिराग पासवान की पार्टी लोजपा (रामविलास) और उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी राष्ट्रीय लोक मोर्चा ने मजबूत पैठ बनाई।
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