1952 में भारत के पहले आम चुनावों के बाद से बिहार की राजनीति में लगभग हर विचारधारा का प्रतिबिंबित देखने को मिला है। राज्य ने तीन दशकों (1952-1990) तक कांग्रेस का प्रभुत्व देखा, जिसके पहले मुख्यमंत्री श्री कृष्ण सिंह ने आधुनिक बिहार की नींव रखी। कांग्रेस के प्रभुत्व को 1967 में समाजवादी दिग्गज राममनोहर लोहिया ने चुनौती दी। एक अन्य प्रमुख समाजवादी, जयप्रकाश नारायण ने 1974 के बिहार आंदोलन (जेपी आंदोलन) का नेतृत्व किया जिसने समाजवादी राजनीति के उदय का सूत्रपात किया। बाद में लालू प्रसाद और नीतीश कुमार ने उस विरासत को और मज़बूत किया और 35 वर्षों तक बिहार पर शासन किया, जिसमें से लगभग 17 वर्षों तक भाजपा ने नीतीश के साथ सत्ता साझा की। आइए नजर डालते हैं बिहार की राजनीतिक यात्रा के पांच निर्णायक पड़ाव पर।
कांग्रेस: श्री बाबू और उससे आगे
जब बिहार में कांग्रेस का इतिहास लिखा जाएगा तो उसे संभवतः दो युगों में विभाजित किया जाएगा- श्री कृष्ण सिंह के साथ और उनके बाद। श्री कृष्ण सिंह 1937 से 1939 और 1946 से 1952 तक बिहार प्रांत के प्रधानमंत्री और 1952 से 1961 में अपनी मृत्यु तक मुख्यमंत्री रहे। 1930 के दशक से उच्च-जाति नेतृत्व के प्रभुत्व वाली कांग्रेस ने सत्ता में उस पदानुक्रम को बरकरार रखा। श्री कृष्ण सिंह (भूमिहार) और उनके उप-प्रधान अनुग्रह नारायण सिंह (राजपूत) के बीच प्रतिद्वंद्विता जगजाहिर थी, हालाँकि दोनों में आपसी सम्मान की भावना थी।
1957 के चुनावों के बाद जब अनुग्रह ने मुख्यमंत्री पद के लिए दावा पेश किया तो श्री कृष्ण सिंह ने उनसे कहा कि अगर वे हार गए तो वे राजनीति छोड़ देंगे। अनुग्रह ने उन्हें आश्वासन दिया कि ऐसा नहीं होगा और ऐसा हुआ भी नहीं। श्री बाबू के बारे में कहा जाता है कि वे दोबारा मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने से पहले अनुग्रह की बाहों में रोये थे और अपने डिप्टी से मंत्रिमंडल चुनने के लिए कहा था।
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श्री कृष्ण सिंह को आधुनिक बिहार के निर्माता के रूप में याद किया जाता है
ऐसे किस्से-कहानियों से परे, श्री कृष्ण सिंह को आधुनिक बिहार के निर्माता के रूप में याद किया जाता है। उन्होंने औद्योगीकरण की नींव रखी—अकेले बेगूसराय में 13 औद्योगिक इकाइयां स्थापित कीं और पूरे राज्य में चीनी, जूट, कागज़ और सीमेंट कारखानों को बढ़ावा दिया। उन्होंने कई शैक्षणिक और चिकित्सा संस्थानों की भी स्थापना की और दामोदर घाटी निगम (DVC) की स्थापना उनके कार्यकाल में हुई। सिंह ने देवघर (अब झारखंड में) स्थित बाबा बैद्यनाथ मंदिर में दलितों के प्रवेश को सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। व्यक्तिगत रूप से, वे मितव्ययिता से जीवन व्यतीत करते थे। पत्रकार सुरेंद्र किशोर याद करते हैं कि उन्होंने अपने बेटे को राजनीति में लाने के किसी भी प्रयास का विरोध किया। उल्लेखनीय बात यह है कि श्री कृष्ण सिंह के बाद किसी भी कांग्रेसी मुख्यमंत्री ने अपना कार्यकाल पूरा नहीं किया।
समाजवादियों का उद्भव और ओबीसी राजनीति का उदय
वरिष्ठ समाजवादी और राजद के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष शिवानंद तिवारी 1965 में पटना के गांधी मैदान में अपने पिता रामानंद तिवारी और कर्पूरी ठाकुर (बाद में मुख्यमंत्री) के साथ उस समय को याद करते हैं जब राममनोहर लोहिया ने कांग्रेस विरोधी अभियान शुरू किया था। पुलिस लाठीचार्ज में रामानंद तिवारी, कर्पूरी ठाकुर, कपिलदेव सिंह, शिवानंद तिवारी और भाकपा नेता चंद्रशेखर सिंह सहित कई नेता घायल हुए थे।
लोहिया ने सोशलिस्ट पार्टी का प्रजा सोशलिस्ट पार्टी में विलय करके संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (एसएसपी) बनाई थी और नारा दिया था, “संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़ा पावे सौ में साथ” (एसएसपी पिछड़े वर्गों के लिए 60 प्रतिशत प्रतिनिधित्व का वादा करती है)। उनकी मुहिम रंग लाई और कांग्रेस 1967 में बिहार सहित नौ राज्यों के विधानसभा चुनावों में हार गई।
1967 और 1972 के बीच, बिहार में सात मुख्यमंत्री हुए
एसएसपी 68 सीटों के साथ कांग्रेस-विरोधी गठबंधन में सबसे बड़ी सहयोगी बनकर उभरी और कर्पूरी ठाकुर के मुख्यमंत्री बनने की उम्मीद थी। लेकिन, छोटे जन क्रांति दल (26 सीटें) के नेता कामाख्या नारायण सिंह ने अपनी पार्टी के महामाया प्रसाद सिन्हा को शीर्ष पद पर पहुंचा दिया और कर्पूरी ने अपने गुरु लोहिया की इच्छा के विरुद्ध अनिच्छा से उप-मुख्यमंत्री की कुर्सी स्वीकार कर ली।
संयुक्त विधायक दल (एसवीडी) के नाम से जाने जाने वाले इस गठबंधन ने भारतीय जनसंघ (बीजेएस) के राजनीतिक अलगाव को भी समाप्त कर दिया। 1967 और 1972 के बीच, बिहार में सात मुख्यमंत्री हुए। सतीश प्रसाद सिंह पहले ओबीसी मुख्यमंत्री बने हालांकि केवल 5 दिनों के लिए। ओबीसी नेता दरोगा प्रसाद राय, ईबीसी नेता कर्पूरी ठाकुर और दलित नेता भोला पासवान शास्त्री जैसे अन्य नेता भी थोड़े-थोड़े समय के लिए मुख्यमंत्री रहे। यह बिहार में समाजवादी राजनीति का पहला वास्तविक आगमन था।
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जेपी, जनता पार्टी और कर्पूरी का कोटा
1970 के दशक की शुरुआत में, गुजरात के नवनिर्माण आंदोलन से प्रेरित होकर, जयप्रकाश नारायण (जेपी) बिहार में छात्र आंदोलन का नेतृत्व करने के लिए सेवानिवृत्ति से उभरे। जेपी आंदोलन के परिणामस्वरूप अंततः प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1975 में आपातकाल लागू कर दिया। इस आंदोलन से निकले छात्रों में छात्र नेता लालू प्रसाद और नीतीश कुमार भी शामिल थे। 1977 में जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल हटाया तब तक उनकी सरकार बेहद अलोकप्रिय हो चुकी थी। गैर-कांग्रेसी ताकतों के गठबंधन, जनता पार्टी ने सत्ता हासिल की जिसने समाजवादी वर्चस्व की दूसरी लहर को चिह्नित किया और अति पिछड़े वर्ग के नेता कर्पूरी ठाकुर को बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठाया। जनता पार्टी का प्रयोग बाद में विफल हो गया लेकिन इसने एक बार फिर बिहार की सामाजिक नब्ज पहचानने में कांग्रेस की अक्षमता को उजागर कर दिया।
मंडल युग: लालू प्रसाद का उदय
1988 में कर्पूरी ठाकुर की मृत्यु के बमुश्किल एक साल बाद, बोफोर्स विरोधी लहर के चलते वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने। कांग्रेस के कमज़ोर होते ही, 1989 के भागलपुर दंगों जिसमें 800 से ज़्यादा मुसलमान और 200 से ज़्यादा हिंदू मारे गए ने मुस्लिम मतदाताओं का झुकाव जनता दल की ओर कर दिया। मार्च 1990 में जब लालू प्रसाद मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने मंडल और कमंडल की राजनीति के बीच टकराव से पैदा हुई स्थिति का फ़ायदा उठाया। वे मुसलमानों और ग़रीबों के नए पैरोकार बनकर उभरे जिसने बिहार की राजनीति में तीसरे समाजवादी दौर की शुरुआत की।
लालू और बाद में राबड़ी देवी के शासन में तीन निर्णायक बदलाव हुए—मंडलीकरण, धर्मनिरपेक्षीकरण और राजनीति का यादवीकरण। यादव-केंद्रित दौर के दौरान, लालू ने अति पिछड़ों और दलितों का समर्थन खोना शुरू कर दिया। उनके कार्यकाल ने सामाजिक सशक्तिकरण तो लाया लेकिन साथ ही बदनामी भी। इसी उथल-पुथल के बीच, नीतीश कुमार को अपना मौका नज़र आया।
नीतीश-एनडीए युग
नीतीश कुमार, जिन्होंने 1994 में जनता दल से अलग होकर समता पार्टी की स्थापना की थी को मामूली सफलता मिली थी। वह 1995 में केवल सात सीटें जीत पाए थे। बाद में उन्होंने अपने सामाजिक गणित को फिर से गढ़ा और 1996 में जॉर्ज फर्नांडीस को एनडीए में शामिल होने के लिए मना लिया। हालाँकि 2000 में राजद सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी, फिर भी एनडीए को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया गया। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने नीतीश को मुख्यमंत्री पद संभालने के लिए कहा। बहुमत न होने की बात जानते हुए, नीतीश ने एक हफ्ते के भीतर ही इस्तीफा दे दिया लेकिन उनका राजनीतिक कद तेज़ी से बढ़ा।
इस एक कदम ने भाजपा के सुशील कुमार मोदी को भी दूसरे पायदान पर धकेल दिया। नीतीश आखिरकार 2005 में मुख्यमंत्री बने और जीतन राम मांझी के नेतृत्व में नौ महीने के अंतराल को छोड़कर, तब से सत्ता में बने हुए हैं। उन्होंने बिहार की जातिगत राजनीति को विकास के आख्यान से जोड़ा और इसके राजनीतिक व्याकरण को नया रूप दिया।
नीतीश तीन प्रतिशत से भी कम आबादी वाले समुदाय (ओबीसी कुर्मी) से आने वाले एक नेता, जो लगभग दो दशकों से मुख्यमंत्री हैं और उन्होंने बिहार के सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहने का श्री कृष्ण सिंह का रिकॉर्ड तोड़ दिया है। आगामी चुनाव यह बताएंगे कि क्या राज्य एक और राजनीतिक उपलब्धि हासिल करने के लिए तैयार है।
