पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के बाद दिल्ली पर काबिज होने के दावेदार सभी प्रमुख दल 22 अप्रैल को होने वाले दिल्ली के तीनों नगर निगमों के चुनाव के लिए अपनी पूरी ताकत एक बार फिर झोंकने वाले हैं। इन नगर निगमों में लगातार दस साल से सत्ता में रही भाजपा ने सत्ता में रहने के नुकसान से बचने के लिए अपने सभी 153 निगम पार्षदों के टिकट काटने का अव्यावहारिक फैसला किया है।
दिल्ली सरकार के समानांतर सत्ता
कहने के लिए यह चुनाव स्थानीय निकाय का है लेकिन वास्तव में निगमों का इलाका दिल्ली के करीब 87 फीसद हैं यानी कमोवेश दिल्ली सरकार के समानांतर दिल्ली की निगमों की सरकार चलती है। मामला दिल्ली के चुनाव का है इसलिए वैसे ही इस पर देश भर की नजर लगी हुई है। तीसरे, आप ने जिस तरह से दिल्ली की राजनीति को बदल दिया है और दो साल से दिल्ली सरकार में काबिज है, यह चुनाव उसकी लोकप्रियता का भी आकलन करने वाला है। आप को कमोवेश कांग्रेस से ज्यादा वोट मिले हैं, इसलिए कांग्रेस हाशिए पर चली गई है। 2016 के निगमों के 13 सीटों के उपचुनाव में कांग्रेस ने वापसी की है। माना जाता है कि पंजाब और दिल्ली के मतदाताओं का समीकरण एक ही तरह का है। वहां दलित, सिख थोड़ा ज्यादा हैं दिल्ली में मुसलमान और दूसरे राज्यों के मतदाता पंजाब से ज्यादा हैं। लेकिन दिल्ली ही जैसा पंजाब के भी कई इलाकों में पूर्वांचल के प्रवासी निर्णायक हो गए हैं। दिल्ली में 14 फरवरी 2015 को थपथ लेने के साथ ही केजरीवाल की टीम दिल्ली के बूते पंजाब का चुनाव लड़ने लगी थी। पंजाब के लिए दिल्ली जैसे दावे किए गए थे लेकिन नतीजों में न केवल कांग्रेस की भारी जीत हुई बल्कि वोट के औसत में आप अकाली दल से भी ज्यादा सीटें लेने पर भी पिछड़ गई।
उत्साह में कांग्रेस
पंजाब के नतीजों से कांग्रेस खेमे में उत्साह है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अजय माकन लंबे समय से इसे लेकर सक्रिय हैं। कांग्रेस के पास इस चुनाव में खोने के लिए कुछ नहीं है। वे न केवल दिल्ली की सत्ता से बेदखल हैं बल्कि उनके मतदाता आप के खेमे में चले गए हैं। कांग्रेस को अपने वोटरों को वापस लाने की चुनौती है। अब तक कांग्रेस और भाजपा में सीधा मुकाबला होने से दोनों पार्टी बारी-बारी से सत्ता में आती रही। 1993 में संविधान में स्थानीय निकायों के लिए हुए 74वें संशोधन के बाद दिल्ली नगर निगम की 134 सीटों में से एक तिहाई महिलाओं के लिए आरक्षित किया गया और हर साल मेयर आदि के चुनाव का विधान बना। इसके तहत 1997 में हुए पहले चुनाव में भाजपा, 2002 में कांग्रेस जीती। 2007 के निगम चुनावों में सीटों की संख्या 134 से बढ़ाकर 272 कर दी गई और आधी सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित की गर्इं। दिल्ली सरकार के समानांतर निगम की सत्ता से परेशान शीला दीक्षित ने निगम के बंटवारे के लिए कमेटी बनाई और केंद्र सरकार से प्रयास करके एक के बजाए तीन निगम बनवा दिया। संयोग से 2012 के चुनाव में भी गैर-भाजपा मतों के विभाजन के कारण भाजपा चुनाव जीत गई। पहली बार राजनीति में आई आप ने 2013 के विधानसभा चुनाव में 28 और 2015 के चुनाव में 70 में से 67 सीटें जीत कर तहलका मचा दिया था।
आप की टूट गई आस
अगर आप पंजाब जीत लेती तो हालात एकदम बदल जाते। तब तो मान लिया जाता कि आप निगम चुनावों को जीत कर दोबारा दिल्ली पर कब्जा जमा लिया। पंजाब चुनावों के नतीजे आने तक भी आप को जीत का भरोसा था। इसलिए उसने अपने दो साला उत्सव के नाते अपनी सरकार के बखान में करोड़ों रुपए विज्ञापन पर खर्च कर दिए। पंजाब चुनाव के लिए पंजाब के मुद्दे पर दिल्ली में विज्ञापन आम हो गया था। जो नहीं कर सके उसके लिए केंद्र सरकार पर ठीकरा फोड़ दिया। अतिथि शिक्षकों के वेतन और न्यूनतम मजदूरी के बिल में वही किया गया है। इस तरह के कई और फैसले जिनसे उन्हें निगम चुनाव में लाभ होगा, आने वाले दिनों में भी नियमों के हिसाब से किए जाने की उम्मीद है। लेकिन अभी तो पंजाब की हार के ही सदमे से उबरने में आप को समय लग रहा है। वैसे निगमों में भारी भ्रष्टाचार के आरोप सभी दल लगाते रहे हैं लेकिन आप ने इसे बड़ा मुद्दा बनाया था क्योंकि वह कभी निगम की सत्ता में रही नहीं। जाहिर है कि आप और कांग्रेस के आरोपों से डर कर ही भाजपा ने अपने सभी निगम पार्षदों को फिर से टिकट न देने का फैसला किया है। वैसे संभव था कि परिसीमन के बाद आधे से ज्यादा पार्षद सीटों का आरक्षण बदलने से उनका टिकट वैसे ही कट रहा था। सभी का टिकट काटने से बड़े पैमाने पर बगावत होने का खतरा पार्टी को झेलना पड़ेगा।

