पंजाब के राजनीतिक समीकरण के हिसाब से आम आदमी पार्टी (आप) की सरकार उप राज्यपाल के माध्यम से केंद्र की भाजपा सरकार पर हमला तेज करती जा रही है। इसके चलते संवैधानिक मर्यादाएं तार-तार होती जा रही हैं। उप राज्यपाल राष्ट्रपति के नाम पर दिल्ली के वैधानिक शासक होते हैं। जिनकी अनुमति से ही विधान सभा बुलाई जाती है और संविधान बदले जाते हैं।

दिल्ली विधान सभा ने उसी के खिलाफ नौ जून को जांच करवाने की घोषणा कर दी है। इतना ही नहीं एक राशन की दुकान को बहाल करने के आदेश देने के खिलाफ मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल अपनी टीम के साथ उप राज्यपाल नजीब जंग की शिकायत राष्ट्रपति से करने पहुंच गए। देश के इतिहास में ऐसा भले कभी न हुआ हो लेकिन आप की सरकार ऐसा कई बार कर चुकी है। 1991 में संविधान में 239 एए के तहत संशोधन करके दिल्ली को उसी तरह विधान सभा दी गई जिस तरह तहत पुड्डुचेरी को सीमित अधिकारों वाली विधान सभा मिली। दिल्ली में विधान सभा को 66 राज्य सूची के विषयों में से 63 सौंपे गए लेकिन पुलिस, कानून-व्यवस्था, पुलिस और राज निवास से जुड़े मामले केंद्र के ही अधीन रहे।

ऐसा ही जीएनसीटी एक्ट 1991 (संशोधन 1992) के ट्रांजेक्शन आॅफ बिजनेस रूल्स (कामकाज की नियमावली)1993 आॅफ गवर्नमेंट आॅफ एनसीटी आॅफ दिल्ली में भी लिखा है। इसी के चलते दिल्ली में मुख्य सचिव, गृह सचिव और भूमि सचिव की नियुक्ति केंद्र की सहमति से होती है। आजादी के बाद मार्च 1952 में महज दस विषयों के लिए 48 सदस्यों वाली दिल्ली को विधान सभा दी गई थी। 1955 में राज्य पुर्नगठन आयोग बनने के बाद दिल्ली की विधान सभा भंग कर दी गई। लेकिन कहा जाता है कि पहले मुख्यमंत्री चौधरी ब्रह्म प्रकाश की केंद्र और दिल्ली के मुख्य आयुक्त से विवाद के चलते दिल्ली विधान सभा भंग की गई। 1958 में दिल्ली नगर निगम अधिनियम के तहत दिल्ली में नगर निगम बनी।

प्रशासनिक सुधार आयोग की 1966 में रिपोर्ट आने के बाद 61 सदस्यों वाली महानगर परिषद बनी जिसे 1987 में भंग करके दिल्ली को नया प्रशासनिक ढांचा देने के लिए बनी बालकृष्ण कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर 1991 में पुलिस और जमीन के बिना विधान सभा दी गई। उसके तहत 1993 में पहला चुनाव हुआ और भाजपा की सरकार बनी। लोक सभा के पूर्व वरिष्ठ रहे एसके शर्मा का कहना है कि दिल्ली को महानगर परिषद के स्थान पर विधान सभा और कार्यकारी परिषद के स्थान पर मंत्रिमंडल बनाने की व्यवस्था या महानगर परिषद की सीटों को 61 से बढ़ा कर 70 करने या मुख्य कार्यकारी पार्षद के स्थान पर मुख्यमंत्री नाम देने से अधिकार नहीं बदले। चुनी हुई सरकार तो महज एक जुमला है। हर स्तर पर तो चुनाव होते ही रहे हैं फिर क्या सारे ही अधिकार उन सरकारों या संस्थाओं को दे दिए गए हैं। दूसरे चुनाव लड़ते समय आप नेताओं को दिल्ली सरकार की हद का अंदाजा नहीं था?

वे संविधान निर्माता डाक्टर भीम राव आंबेडकर के तब के भाषणों का हवाला देते हैं जिसमें उन्होंने देश की राजधानी में दो तरह की शासन प्रणाली होने का विरोध किया था। इसीलिए दिल्ली सरकार के अधीन न तो नई दिल्ली नगरपालिका परिषद है न दिल्ली छावनी और न ही दिल्ली की तीनों निगमें। पुलिस और डीडीए तो विधान में ही केंद्र के अधीन है। 1993 की भाजपा सरकार ने प्रयास करके दिल्ली फायर सर्विस, होम गार्ड, बिजली, पानी, डीटीसी अपने अधीन किया। फिर कांग्रेस सरकार ने सीवर और चौड़ी सड़कें दिल्ली सरकार के अधीन करने का प्रस्ताव केंद्र को भेजा, तो ने भी उसमें अडंगा नहीं लगाया। इतना ही नहीं 1998 में तब के मुख्यमंत्री साहिब सिंह के प्रयास से कर लगाने का अधिकार दिल्ली सरकार को मिला। 15 साल मुख्यमंत्री रही शीला दीक्षित ने इसमें कुछ बदलाव की कोशिश की भी तो उन्हें सफलता नहीं मिली। उन्होंने टकराव से कम संवाद से विवाद ज्यादा सुलझाए।

अब आरोप यही लग रहे हैं कि आप की सरकार काम करने के बजाए विवाद करके समय बिताने में लगी है। और दिल्ली की बुनियाद पर पंजाब व गोवा समेत देश भर में चुनाव लड़ना चाहती है। विवाद राजनीतिक लोगों से होना या उस पर बयानबाजी अटपटा नहीं है लेकिन संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों पर सरकार में शामिल लोग ही खुलेआम टिप्पणी करें तो संविधान की मर्यादा कहां बचेगी?