अर्जुन सिंह देश की राजनीति के ऐसे नेता थे, जो जहां भी जाते रहस्य का वातावरण अपने इर्द गिर्द बुन देते थे। साठ साल के राजनैतिक जीवन में अर्जुन सिंह कभी चाणक्य कहलाए तो कभी राजनीति की बूझ पहेली। वे तीन बार मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रहे फिर पंजाब के राज्यपाल, अखिल भारतीय कांग्रेस पार्टी के उपाध्यक्ष और पांच बार केंद्रीय मंत्री रहे।
हालांकि राजनीति के इस सितारे की राजनैतिक शुरुआत त्रासदी से भरी थी। 1952 में आजाद भारत का पहला आम चुनाव होना था। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू विंध्य क्षेत्र की एक चुनावी सभा को संबोधित करने रीवा गए थे। सभा में विंध्य के नेता शंभूनाथ शुक्ल और मुख्यमंत्री कप्तान अवधेश प्रताप सिंह बैठे थे। स्वागत के लिए दरबार महाविद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष के नाते अुर्जन सिंह उपस्थित थे।
नेहरू जी का भाषण शुरू होने के ठीक पहले एक नेता जी धीरे से उन्हें कुछ बताते हैं। इससे प्रधानमंत्री का चेहरा गुस्से से लाल हो गया था और उन्होंने भाषण मंच से ही कह दिया, चुरहट से खड़ा उम्मीदवार कांग्रेस का प्रत्याशी नहीं है। जिस कांग्रेसी उम्मीदवार को नेहरू ने मंच से ही नकार दिया उनका नाम था राव शिवबहादुर सिंह और वे अर्जुन सिंह के पिता थे। वे विंध्यप्रदेश की अवधेश प्रताप सिंह सरकार में मंत्री भी थे।
अर्जुन सिंह ने अपनी आत्मकथा ‘अ ग्रेन ऑफ सैंड इन दी ऑवरग्लास ऑफ टाइम’ में लिखा है कि 1949 में इलाहाबाद से प्रकाशित होने वाले एक अखबार में यह खबर छपी थी कि उनके पिता ने 25000 रुपये की रिश्वत ली थी। उन पर यह आरोप था कि पन्ना की हीरा खदानों की लीज के मामले में उन्होंने नगीनदास मेहता से यह रकम ली थी।
अर्जुन सिंह ने लिखा है कि यह त्रासदीपूर्ण घटनाक्रम 1957 तक पूरे आठ साल चला। 1954 में वो अपने पिता से मिलने के लिए जेल गए और तभी प्रण किया था कि जनसेवा के माध्यम से वो परिवार के नाम पर लगे कलंक को धो देंगे।
अर्जुन पर उनके पिता के इस प्रकरण की छाया अक्सर पड़ती रही। जब पहली बार वो निर्दलीय विधायक बने तो एक कांग्रेसी विधायक गायत्री देवी के सवाल के जवाब में उन्होंने कहा था, “मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि मेरे पिता को सजा हुई और उन्होंने जेल भी काटी। पर मुझे यह कहते हुए कोई प्रसन्नता भी नहीं है।”
मई 1979 को अर्जुन सिंह द्वारा वीरेंद्र कुमार सखलेचा की सरकार के खिलाफ रखे गए अविश्वास प्रस्ताव पर जवाबी हमले में जनता पार्टी के विधायक नवीन कोचर ने उन पर एक कटाक्ष किया था। उन्होने कहा था कि आपके पिता को रिश्वत लेने के अपराध में सजा मिली थी। इस पर अर्जुन सिंह ने कहा था, “यह सही है कि उन्हें सजा हुई थी, पर अब वे इस दुनिया में नहीं हैं। यह मामला कितना सही या गलत था यह अब उनसे नहीं पूछा जा सकता है।”
अर्जुन सिंह के विरोधियों ने यह कहानी कई बार दोहराई। जब वे मुख्यमंत्री बने थे तब भी यह मामला विपक्ष ने उठाया था। उस समय सिंह ने कहा था, “कोई भी व्यक्ति अपने पिता का चयन नहीं कर सकता है। इस तरह के आरोप लगाने वाले अपने पिता का चयन कर सकते हों, तो उन्हें पता नहीं।” इससे विरोधियों की बोलती बंद हो गई थी।
मंत्री विधायकों को देना चाहिए संपत्ति का ब्योरा: मध्यप्रदेश की दूसरी विधानसभा में डॉक्टर कैलाशनाथ काटजू मुख्यमंत्री थे। अर्जुन सिंह ने विधानसभा में एक अशासकीय प्रस्ताव रखा कि सदन की सदस्यता लेने से पहले हर विधायक को अपनी संपत्ति का ब्योरा देना चाहिए। यह प्रस्ताव तो पारित नहीं हो सका, लेकिन इससे अर्जुन सुर्खियों में आ गए। आजादी के दस साल बाद देश की किसी विधानसभा में ऐसा प्रस्ताव आना बेहद महत्वपूर्ण था। अर्जुन ने अपनी संपत्ति का ब्योरा सदन के पटल पर रखा था, जिसे तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष कुंजीलाल दुबे ने सभी को पढ़कर सुनाया था।