कारखानों, बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन, होटलों, ढाबों पर काम करने से लेकर कचरे के ढेर में कुछ ढूंढ़ता मासूम बचपन आज न केवल 21वीं सदी में भारत की आर्थिक वृद्धि का एक स्याह चेहरा पेश करता है बल्कि आजादी के 68 साल बाद भी सभ्य समाज की उस तस्वीर पर सवाल उठाता है जहां हमारे देश के बच्चों को हर सुख-सुविधाएं मिल सकें। चाइल्ड राइट्स एंड यू (क्राई) की रिपोर्ट के मुताबिक देश में 1.02 करोड़ बच्चे काम कर अपना जीवनयापन कर रहे हैं। वे स्कूलों से दूर हैं। 2001 से 2011 के दौरान शहरी बाल श्रम में 50 फीसद की बढ़ोतरी हुई है।

जाने-माने चिंतक केएन गोविंदाचार्य ने कहा कि हमारे ही देश का मासूम बचपन ऐसा है जो खेतों में, कारखानों में काम कर रहा है, ठेली लगाकर सामान बेच रहा है, रेशम के धागे से कपड़े तैयार कर रहा है, चाय की दुकान पर बर्तन धो रहा है, स्कूल बसों में हेल्परी कर रहा है, फूल बेच रहा है और न जाने क्या-क्या करने पर मजबूर है। इनके काम के घंटे भी तय नहीं होते। इनको 25 से 50 रुपए मजदूरी देकर इतिश्री हो जाती है। प्रताड़ित अलग से किया जाता है। दिल्ली जैसे महानगरों में निर्माण क्षेत्र में काम करने वाले मजदूरों के बच्चों की स्थिति तो और भी दयनीय है। उनके रहने का कोई ठिकाना ही नहीं है, पढ़ाई-लिखाई की तो क्या बात करें।

स्वराज आंदोलन के योगेंद्र यादव के अनुसार हमारे समाज में शिक्षा के प्रति आग्रह बढ़ता जा रहा है। लेकिन वहनीय शिक्षा तो दूर, वंचित वर्ग के बच्चे आज मजदूरी करने को विवश हैं। देश का कटु सत्य यह है कि मासूम बच्चों का जीवन कहीं तो खुशियों से भरा है तो कहीं छोटी सी जरूरत से भी महरूम है। बच्चों के हाथों में कलम और आंखों में भविष्य के सपने होने चाहिए। लेकिन दुनिया में करोड़ों बच्चे ऐसे हैं, जिनकी आंखों में कोई सपना नहीं पलता। बस दो जून की रोटी कमा लेने की चाहत पलती है।

सामाजिक कार्यकर्ता लक्ष्मी नारायण मोदी ने कहा कि हमारे देश के हर कोने में पलने वाले हर बच्चे को शिक्षा और उसकी जरूरत की हर सुख-सुविधा मुहैया होनी चाहिए। लेकिन आप देश के किसी भी कोने में जाएं, वहां पर आपको होटलों, ढाबों, दुकानों, घरों, गैराजों, पटाखों, चूड़ी व कालीन के कारखानों में गरीबों के बच्चे अपने बचपन को खाक में मिलाते दिख जाएंगे। सभ्य और बड़े कहलाने वाले समाज के लोग भी बच्चों का शोषण करने में पीछे नहीं हैं। ऐसे में सर्व शिक्षा अभियान बेमानी हो जाता है।

यूनीसेफ के एक अध्ययन के अनुसार उद्योगों, ढाबों व ऐसे ही कार्यस्थलों पर बच्चों का नियोजन इसलिए भी किया जाता जा रहा है, क्योंकि उनका शोषण बड़ी आसानी से किया जा सकता है। आज मासूम बच्चों का जीवन केवल बाल श्रम तक ही सीमित नहीं बल्कि बच्चों की तस्करी और लड़कियों के साथ भेदभाव भी देश में एक विकट समस्या बन गया है। 1980 में बचपन बचाओ आंदोलन की शुरुआत हुई। बाल श्रम रोकने के लिए न जाने कितनी संस्थाएं काम कर रही हैं। लेकिन बाल श्रम में कमी होती नजर दिख रही है। बच्चों को अभी भी अपने अधिकार पूरे तौर पर नहीं मिल पाते। कई बच्चों को भरपेट भोजन नसीब नहीं होता। स्वास्थ्य संबंधी देखभाल की सुविधाएं तो हैं ही नहीं।