पुरानी कहावत है कि बड़ी मछली छोटी मछली को निगल जाती है। सियासत में भी चलता है ऐसा ही दस्तूर। कहने को जो एक दूसरे के सहयोगी होते हैं, अंदरखाने वे ही एक दूसरे की जड़ें खोखली करते हैं। बिहार में ऐसी नौबत का अंदेशा तभी से जताया जाने लगा था जब नीतीश कुमार ने लालू से नाता तोड़ कर भाजपा का पल्लू पकड़ा था। सियासत के जानकारों ने नीतीश को आगाह भी किया था कि भाजपा उन्हें उसी गत में पहुंचा देगी जिसमें उसने महाराष्ट्र की अपनी सबसे भरोसेमंद और पुरानी सहयोगी शिवसेना को पहुंचाया है। बहरहाल, कुछ वक्त तो आराम से बीत गया पर लगता है कि अब अपने सुशासन बाबू की दुविधा बढ़ेगी।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुजरात और हिमाचल की जीत के बाद 2019 के लोकसभा चुनाव के बारे में चिंतन शुरू कर दिया है। पार्टी सांसदों को उन्होंने मंत्र दिया है कि वे गांव-गांव और बूथ-बूथ पार्टी को मजबूत करें। यानी बिहार में भी अब भाजपा अपना जनाधार बढ़ाना चाहेगी। अभी तो तीसरे नंबर की हैसियत है पार्टी की इस सूबे में। अब नीतीश के सामने दोहरी चुनौती होगी। एक तरफ अपनी अव्वल दुश्मन राजद को पछाड़ना तो दूसरी तरफ यह चौकसी भी बरतना कि भाजपा जद (एकी) से आगे न निकल जाए। अभी तक नीतीश ने जुबान पर संयम बरता है।

कोई भी ऐसी टिप्पणी नहीं की है जिससे नरेंद्र मोदी या भाजपा को ठेस लगे। यानी अपनी तरफ से वे दिलों के बीच दूरी नहीं बढ़ाना चाहते। इसीलिए नतीजे आने से पहले ही वे गुजरात को लेकर भविष्य वक्ता बन बैठे। कह दिया था कि वहां भाजपा ही जीतेगी। भले गुजरात के चुनाव से उनका कुछ लेना-देना नहीं है। बात बिहार की होगी तो वे सोचने को मजबूर जरूर होंगे। अपनी कीमत पर भला अपनी सहयोगी पार्टी का विस्तार क्यों चाहेंगे नीतीश? भले राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा बड़ी मछली हो पर बिहार के नजरिए से देखें तो अभी उसका वजूद छोटी मछली भर का ठहरा।